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अष्टपाहुड भावार्थ - तप व्रत सम्यक्त्व इन सहित और जिनमें इनके मूलगुण तथा अतिचारों का शोधना होता है इसप्रकार दीक्षा शुद्ध है। अन्य वादी तथा श्वेताम्बरादि चाहे जैसे कहते हैं, वह दीक्षा शुद्ध नहीं है ।।५८।। आगे प्रव्रज्या के कथन का संकोच करते हैं -
एवं आयत्तणगुणपजंता बहुविसुद्धसम्मत्ते । णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहाखादं ।।५९।।
एवं आयतनगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे ।
नि[थे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ।।५९।। अर्थ – इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से आयतन अर्थात् दीक्षा का स्थान जो निर्ग्रन्थ मुनि उसके गुण जितने हैं, उनसे पजता अर्थात् परिपूर्ण अन्य भी जो बहुत से गुण दीक्षा में होने चाहिए वे गुण जिसमें हों इसप्रकार की प्रव्रज्या जिनमार्ग में प्रसिद्ध है। उसीप्रकार संक्षेप में कही है। कैसा है जिनमार्ग ? जिसमें सम्यक्त्व विशुद्ध है, जिसमें अतिचार रहित सम्यक्त्व पाया जाता है और निर्ग्रन्थरूप है अर्थात् जिसमें बाह्य-अंतरंग परिग्रह नहीं है।
भावार्थ - इसप्रकार पूर्वोक्त प्रव्रज्या निर्मल सम्यक्त्वसहित निर्ग्रन्थरूप जिनमार्ग में कही है। अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि और बौद्ध आदिक मत में नहीं है। कालदोष से जैनमत में भ्रष्ट हो गये और जैन कहलाते हैं इसप्रकार के श्वेताम्बरादिक में भी नहीं है ।।५९।। इसप्रकार प्रव्रज्या के स्वरूप का वर्णन किया। आगे बोधपाहुड को संकोचते हुए आचार्य कहते हैं -
रूवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्कायहियंकरं उत्तं ।।६०।। रूपस्थं शुद्ध्ययर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम्।
भव्यजनबोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम् ।।६०।। अर्थ - जिसमें अंतरंग भावरूप अर्थ शुद्ध है और ऐसा ही रूपस्थ अर्थात् बाह्यस्वरूप
षट्काय हितकर जिसतरह ये कहे हैं जिनदेव ने। बस उसतरह ही कहे हमने भव्यजन संबोधने ।।६।।