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अष्टपाहुड
दीक्षा है ।।४८।। आगे फिर कहते हैं -
णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिहोसा। णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।४९।।
निर्ग्रथा नि:संगा निर्मानाशा अरागा निर्द्वषा ।
निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।४९।। अर्थ – कैसी है प्रव्रज्या ? निग्रंथस्वरूप है, परिग्रह से रहित है, नि:संग अर्थात् जिसमें स्त्री आदि पर द्रव्य का संग-मिलाप नहीं है; जिसमें निर्माना अर्थात् मान कषाय भी नहीं है, मदरहित है, जिसमें आशा नहीं है, संसारभोग की आशा रहित है, जिसमें अराग अर्थात् राग का अभाव है, संसार-देह-भोगों से प्रीति नहीं है, निर्द्वषा अर्थात् किसी से द्वेष नहीं है, निर्ममा अर्थात किसी से ममत्वभाव नहीं है, निरहंकारा अर्थात् अहंकाररहित है, जो कुछ कर्म का उदय होता है, वही होता है। इसप्रकार जानने से परद्रव्य में कर्तृत्व का अहंकार नहीं रहता है और अपने स्वरूप का ही उसमें साधन है, इसप्रकार प्रव्रज्या कही है।
भावार्थ – अन्यमती भेष पहिनकर उसी मात्र को दीक्षा मानते हैं, वह दीक्षा नहीं है, जैनदीक्षा इसप्रकार कही है।।४९।। आगे फिर कहते हैं -
णिण्णे हा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार िण क क ल स । । णिब्भय णिरासभावा पव्वजा एरिसा भणिया ।।५०।।
नि:स्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा नि:कलुषा।
निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदशी भणिता ।।५०।। अर्थ – प्रव्रज्या ऐसी कही है - नि:स्नेहा अर्थात् जिसमें किसी से स्नेह नहीं, जिसमें परद्रव्य से रागादिरूप सचिक्कणभाव नहीं है, जिसमें निर्लोभा अर्थात् कुछ परद्रव्य के लेने की वांछा नहीं
निर्लोभ है निर्मोह है निष्कलुष है निर्विकार है। निस्नेह निर्मल निराशा जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।।५०।।