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अष्टपाहुड
(११) आगे प्रव्रज्या का स्वरूप कहते हैं -
गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकषाया। पावारंभविमुक्का पव्वजा एरिसा भणिया ।।४५।।
गृहग्रंथमोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषाया।
पापारंभविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।४५।। अर्थ – गृह (घर) और ग्रंथ (परिग्रह) इन दोनों से मुनि तो मोह ममत्व, इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित ही है, जिनमें बाईस परीषहों का सहना होता है, कषायों को जीतते हैं और पापरूप आरंभ से रहित हैं, इसप्रकार प्रव्रज्या जिनेश्वरदेव ने कही है।
भावार्थ - जैनदीक्षा में कुछ भी परिग्रह नहीं, सर्व संसार का मोह नहीं, जिसमें बाईस परीषहों का सहना तथा कषायों का जीतना पाया जाता है और पापारंभ का अभाव होता है। इसप्रकार की दीक्षा अन्यमत में नहीं है ।।४५।। आगे फिर कहते हैं -
धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई। कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।४६।।
धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदशी भणिता ।।४६॥ अर्थ - धन, धान्य, वस्त्र इनका दान, हिरण्य अर्थात रूपा, सोना आदिक, शय्या, आसन आदि शब्द से छत्र, चामरादिक और क्षेत्र आदि कुदानों से रहित प्रव्रज्या कही है।
भावार्थ - अन्यमती, बहुत से इसप्रकार प्रव्रज्या कहते हैं - गौ, धन, धान्य, वस्त्र, सोना, रूपा (चाँदी), शयन, आसन, छत्र, चंवर और भूमि आदि का दान करना प्रव्रज्या है। इसका इस गाथा में निषेध किया है - प्रव्रज्या तो निर्ग्रन्थस्वरूप है, जो धन, धान्य आदि रखकर दान करे उसके काहे की प्रव्रज्या ? यह तो गृहस्थ का कर्म है, गृहस्थ के भी इन वस्तुओं के दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत हैं और पुण्य अल्प है वह बहुत पापकार्य तो गृहस्थ को
धन-धान्य पट अर रजत-सोना आसनादिक वस्तु के। भूमि चंवर-छत्रादि दानों से रहित हो प्रव्रज्या ।।४६।। जिनवर कही है प्रव्रज्या समभाव लाभालाभ में। अर कांच-कंचन मित्र-अरिनिन्दा-प्रशंसा भाव में।।४७।।