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अष्टपाहुड
बाद आयु के दिन थोड़े रहने पर योगनिरोध कर अघातिकर्म का नाशकर मुक्ति पधारते हैं, तत्पश्चात् शरीर का अग्नि संस्कार कर इन्द्र उत्सवसहित 'निर्वाण कल्याणक' महोत्सव करता है। इसप्रकार तीर्थंकर पंचकल्याणक की पूजा प्राप्त कर, अरहंत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं - ऐसा
जानना ।। ४१ ।।
आगे (११) प्रव्रज्या का निरूपण करते हैं, उसको दीक्षा कहते हैं । प्रथम ही दीक्षा के योग्य स्थानविशेष को तथा दीक्षासहित मुनि जहाँ तिष्ठते हैं, उसका स्वरूप कहते हैं
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सुणहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाणवासे वा । गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ।। ४२ ।। 'सवसासत्तं तित्थं 'वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अह बेज्झं जिणमग्गे जिणवरा विंति । ।४३ । । पंचमहव्वयजुत्ता पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा । सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति ।।४४।।
शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा श्मसानवासे वा । गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसतौ वा ।। ४२ ।। स्ववशासक्तं तीर्थं वचश्चैत्यालयत्रिकं च उक्तैः । जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति ।। ४३ ।। पंचमहाव्रतयुक्ता: पंचेन्द्रियसंयताः निरपेक्षाः ।
१. सं. प्रति में 'सवसा' 'सतं' ऐसे दो पद किये हैं जिनकी सं. स्ववशा 'सत्त्वं' लिखा है । २. 'वचचइदालत्तयं' इसके भी दो ही पद किये हैं 'वचः ' चैत्यालयं ।
शून्यघर तरुमूल वन उद्यान और मसान में I वसतिका में रहें या गिरिशिखर पर गिरिगुफा में ।। ४२ ।। चैत्य आलय तीर्थ वच स्ववशासक्तस्थान में । जिनभवन में मुनिवर रहें जिनवर कहें जिनमार्ग में ।।४३।। इन्द्रियजयी महाव्रतधनी निरपेक्ष सारे लोक से । निजध्यानरत स्वाध्यायरत मुनिश्रेष्ठ ना इच्छा करें ।। ४४ । ।