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है । कौण्डकुन्दपुर के वासी होने से आपको भी कौण्डकुन्दपुर के आचार्य के अर्थ में कौण्डकुन्दाचार्य कहा जाने लगा, जो श्रुति मधुरता की दृष्टि से कालान्तर में कुन्दकुन्दाचार्य हो गया । यद्यपि 'आचार्य' पद है, तथापि वह आपके नाम के साथ इसप्रकार घुल-मिल गया कि वह नाम का ही अंग हो गया ।
इस संदर्भ में चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेखों में अनेकों बार समागत निम्नांकित छन्द उल्लेखनीय हैं. "श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवग्र्गा श्री गौतमाद्यार्प्रभविष्णवस्ते | तत्राम्बुधौ सप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्ततौ नन्दिगणे बभूव । । ३ । ।। श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्य्यशब्दोत्तरकौण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसञ्जातसुचारणर्द्धि ।।४।।
मुनीन्द्रों में श्रेष्ठ प्रभावशाली महर्द्धिक गौतमादि रत्नों के रत्नाकर, आचार्य परम्परा में नन्दिगण में श्रेष्ठ चारित्र के धनी, चारण ऋद्धिधारी पद्मनन्दी नाम के मुनिराज हुए, जिनका दूसरा नाम - आचार्य शब्द है अंत में जिसके - ऐसा कौण्डकुन्द था अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य था ।”
उक्त छन्दों में तीन बिन्दु अत्यन्त स्पष्ट हैं - १. गौतम गणधर के बाद किसी अन्य का उल्लेख न होकर कुन्दकुन्द का ही उल्लेख है, जो दिगम्बर परम्परा में उनके स्थान को सूचित करता है । २. उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी। ३. उनका पद्मनन्दी प्रथम नाम था और दूसरा नाम कुन्दकुन्दाचार्य था।
'आचार्य' शब्द नाम का ही अंश बन गया था, जो कि 'आचार्यशब्दोत्तरकौण्डकुन्दः' पद से अत्यन्त स्पष्ट है । यह भी स्पष्ट है कि यह नाम उनके आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद ही प्रचलित हुआ; परन्तु यह नाम इतना प्रचलित हुआ कि मूल नाम भी विस्मृत-सा हो गया ।
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उक्त नामों के अतिरिक्त एलाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य भी आपके नाम कहे जाते हैं । ७ इस सन्दर्भ में विजयनगर के एक शिलालेख में एक श्लोक पाया जाता है, जो इसप्रकार है. “आचार्य कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । एलाचार्यो गृद्धपृच्छ इति तन्नाम पञ्चधा ।।'
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उक्त सभी नामों में कुन्दकुन्दाचार्य नाम ही सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है। जब उनके मूल नाम पद्मनन्दी को भी बहुत कम लोग जानते हैं तो फिर शेष नामों की तो बात ही क्या करें ?
कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्य के भाग्यशाली गुरु कौन थे ? - इस संदर्भ में अन्तर्साक्ष्य के रूप में बोधपाहुड़ की जो गाथाएँ उद्धृत की जाती हैं, वे इसप्रकार हैं
" सद्दवियारो भूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। ६१ ।।
६. जैनशिलालेख संग्रह, पृष्ठ ३४, ४३, ५८ एवं ७१
७. श्रुतसागर सूरि : षट्प्राभृत टीका, प्रत्येक प्राभृत की अंतिम पंक्तियाँ ।
८. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १ किरण ४ (तीर्थंकर भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृष्ठ- १०२ )
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