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बोधपाहुड
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हैं-सहित हैं। इसप्रकार गुण छद्मस्थ में कहीं भी नहीं है, इसलिए जिसमें उपमारहित गुण हैं, ऐसे अरहंत होते हैं ।
भावार्थ - केवल नाममात्र ही अरहत हो उसको अरहंत नहीं कहते हैं । इसप्रकार के गुणों से सहित हो उसको अरहंत कहते हैं ।
आगे फिर कहते हैं -
जरवाहिजम्ममरणं चउगड्गमणं च पुण्णपावं च ।
हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ।। ३० ।। जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं पुण्यपावं च ।
हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयश्चार्हन् ।।३०॥
अर्थ - जरा-बुढ़ापा, व्याधि-रोग, जन्म-मरण, चारों गतियों में गमन, पुण्य-पाप और दोषों को उत्पन्न करनेवाले कर्मों का नाश करके, केवलज्ञानमयी अरहंत हुआ हो वह 'अरहंत' है।
भावार्थ - पहिली गाथा में तो गुणों के सद्भाव से अरहंत नाम कहा और इस गाथा में दोषों के अभाव से अरहंत नाम कहा । राग, द्वेष, मद, मोह, अरति, चिंता, भय, निद्रा, विषाद, खेद और विस्मय ये ग्यारह दोष तो घातिकर्म के उदय से होते हैं और क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, रोग और स्वेद - ये सात दोष अघातिकर्म के उदय से होते हैं । इस गाथा में जरा, रोग, जन्म, मरण और चार गतियों में गमन का अभाव कहने से तो अघातिकर्म से हुए दोषों का अभाव ,क्योंकि अघातिकर्म में इन दोषों को उत्पन्न करनेवाली पापप्रकृतियों के उदय का अरहंत के अभाव है और रागद्वेषादिक दोषों का घातिकर्म के अभाव से अभाव है।
जानना,
यहाँ कोई पूछे अर्हन्त को मरण का और पुण्य का अभाव कहा; मोक्षगमन होना यह 'मरण' अरहंत के है और पुण्यप्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उनका अभाव कैसे ?
उसका समाधान यहाँ मरण होकर फिर संसार में जन्म हो इसप्रकार के 'मरण' की अपेक्षा यह कथन है, इसप्रकार मरण अरहंत के नहीं है, उसीप्रकार जो पुण्यप्रकृति का उदय पापप्रकृति सापेक्ष करे इसप्रकार पुण्य के उदय का अभाव जानना अथवा बंध-अपेक्षा पुण्य का भी बंध नहीं है । सातावेदनीय बंधे वह स्थिति - अनुभाग बिना बंधतुल्य ही है।
प्रश्न - केवली के असाता वेदनीय का उदय भी सिद्धान्त में कहा है, उसकी प्रवृत्ति कैसे है ?
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जन्ममरणजरा चतुर्गतिगमन पापरु पुण्य सब ।
दोषोत्पादक कर्म नाशक ज्ञानमय अरिहंत हैं ||३०||