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तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम्।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ।। १८ ।।
अर्थ - जो तप, व्रत और गुण अर्थात् उत्तरगुणों से शुद्ध हों, सम्यग्ज्ञान से पदार्थों को यथार्थ जानते हों, सम्यग्दर्शन से पदार्थों को देखते हों, इसीलिए जिनके शुद्ध सम्यक्त्व है - इसप्रकार जिनबिंब आचार्य है। यही दीक्षा- शिक्षा की देनेवाली अरहंत की मुद्रा है।
भावार्थ - इसप्रकार जिनबिंब है वह जिनमुद्रा ही है, इसप्रकार जिनबिंब का स्वरूप कहा है ।। १८ ।।
(६) आगे जिनमुद्रा का स्वरूप कहते हैं
दढसंजममुद्दाए इन्दियमुद्दा कसायदिढमुद्दा ।
मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्रा एरिसा भणिया ।। १९ ।।
दृढसंयममुद्रया इन्द्रियमुद्रा कषायदृढमुद्रा ।
मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता । । १९।।
अष्टपाहुड
अर्थ – दृढ़ अर्थात् वज्रवत् चलाने पर भी न चले ऐसा संयम - इन्द्रिय मन का वश करना, षट्जीव निकाय की रक्षा करना, इसप्रकार संयमरूप मुद्रा से तो पाँच इन्द्रियों को विषयों में न प्रवर्ताना; उनका संकोच करना यह तो इन्द्रियमुद्रा है और इसप्रकार संयम द्वारा ही जिसमें कषायों की प्रवृत्ति नहीं है ऐसी कषायदृढमुद्रा है तथा ज्ञान को स्वरूप में लगाना इसप्रकार ज्ञानद्वारा बाह्यमुद्रा शुद्ध होती है। इसप्रकार जिनशास्त्र में ऐसी 'जिनमुद्रा' होती है ।
भावार्थ - १. जो संयमसहित हो, २. जिसकी इन्द्रियाँ वश में हों, ३. कषायों की प्रवृत्ति होती हो और ४. ज्ञान को स्वरूप में लगाता हो - ऐसा मुनि हो सो ही 'जिनमुद्रा है ।। १९ ।। (७) आगे ज्ञान का निरूपण करते हैं।
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संजमसंजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥ २० ॥
व्रततप गुणों से शुद्ध सम्यक् भाव से पहिचानते ।
दें दीक्षा शिक्षा यही मुद्रा कही है अरिहंत की ।। १८ ।। निज आतमा के अनुभवी इन्द्रियजयी दृढ़ संयमी । जीती कषायें जिन्होंने वे मुनी जिनमुद्रा कही । । १९ ।। संयमसहित निजध्यानमय शिवमार्ग ही प्राप्तव्य है । सद्ज्ञान से हो प्राप्त इससे ज्ञान ही ज्ञातव्य है ।।२०।।