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अष्टपाहुड
मूर्ति निर्ग्रन्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है। इसप्रकार मुनि के रूप को जिनमार्ग में 'दर्शन' कहा है तथा इसप्रकार के रूप के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व स्वरूप को 'दर्शन' कहते हैं।
भावार्थ - परमार्थरूप ‘अंतरंग दर्शन' तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य' उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनि का रूप है सो 'दर्शन' है, क्योंकि मत की मूर्ति को दर्शन कहना लोक में प्रसिद्ध है।। आगे फिर कहते हैं -
जह फुल्लं गंधमयं भवति हुखीरंस घियमयं चावि। तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ।।१५।। यथा पुष्पं गंधमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि।
तथा दर्शनं हि सम्यक् ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ।।१५।। अर्थ - जैसे फूल गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दर्शन अर्थात् मत में सम्यक्त्व है। कैसा है दर्शन ? अंतरंग तो ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है-मुनि का रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक, अर्जिका का रूप है।
भावार्थ- 'दर्शन' नाम मत का प्रसिद्ध है। यहाँ जिनदर्शन में मनि. श्रावक और आर्यिका का जैसा बाह्य भेष कहा सो 'दर्शन' जानना और इसकी श्रद्धा सो ‘अंतरंग दर्शन' जानना । ये दोनों ही ज्ञानमयी हैं, यथार्थ तत्त्वार्थ का जाननेरूप सम्यक्त्व जिसमें पाया जाता है इसीलिए फूल में गंध का और दूध में घृत का दृष्टांत युक्त है, इसप्रकार दर्शन का रूप कहा। अन्यमत में तथा कालदोष से जिनमत में जैनाभास भेषी अनेकप्रकार अन्यथा कहते हैं जो कल्याणरूप नहीं है, संसार का कारण है ।।१५।। (५) आगे जिनबिंब का निरूपण करते हैं -
जिणबिंबं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ।।१६।।
दूध घृतमय लोक में अर पुष्प हैं ज्यों गंधमय । मुनिलिंगमय यह जैनदर्शन त्योंहि सम्यक ज्ञानमय ।।१५।। जो कर्मक्षय के लिए दीक्षा और शिक्षा दे रहे । वे वीतरागी ज्ञानमय आचार्य ही जिनबिंब हैं।।१६।।