________________
अष्टपाहुड यथा अनुक्रम से जानने और ८. देव, ९. तीर्थ, १०. अरहंत तथा गुण से विशुद्ध ११. प्रव्रज्या ये चार जो अरहंत भगवान ने कहे वैसे इस ग्रंथ में जानना, इसप्रकार ये ग्यारह स्थल हुए ।।३-४ ।।
भावार्थ - यहाँ आशय इसप्रकार जानना चाहिए कि धर्ममार्ग में कालदोष से अनेक मत हो गये हैं तथा जैनमत में भी भेद हो गये हैं, उनमें आयतन आदि में विपर्यय (विपरीतपना) हुआ है, उनका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप तो लोग जानते नहीं हैं और धर्म के लोभी होकर जैसी बाह्य प्रवृत्ति देखते हैं, उनमें ही प्रवर्तने लग जाते हैं, उनको संबोधने के लिए यह ‘बोधपाहुड' बनाया है। उसमें आयतन आदि ग्यारह स्थानों का परमार्थभूत सच्चा स्वरूप जैसा सर्वज्ञदेव ने कहा है, वैसे कहेंगे, अनुक्रम में जैसे नाम कहे हैं, वैसे ही अनुक्रम से इनका व्याख्यान करेंगे सो जानने योग्य है।।३-४।। (१) आगे प्रथम ही जो आयतन कहा उसका निरूपण करते हैं -
मणवयणकायदव्वा आयत्ता जस्स इन्दिया विसया। आयदणं जिणमग्गे णिद्दिटुं संजयं रूवं ।।५।। मनोवचनकायद्रव्याणि आयत्ता: यस्य ऐन्द्रिया: विषयाः।
आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं संयतं रूपम् ।।५।। अर्थ – जिनमार्ग में संयमसहित मुनिरूप है, उसे 'आयतन' कहा है। कैसा है मुनिरूप, जिसके मन-वचन-काय द्रव्यरूप हैं वे तथा पाँच इन्द्रियों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द ये विषय हैं वे। 'आयत्ता' अर्थात् अधीन हैं-वशीभूत हैं। उनके (मन-वचन-काय और पाँच इन्द्रियों के विषय) संयमी मुनि आधीन नहीं हैं । वे मुनि के वशीभूत हैं ऐसा संयमी है वह 'आयतन' है ।।५।। आगे फिर कहते हैं -
मयरायदोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता। पंचमहव्वयधारी आयदणं महरिसी भणियं ।।६।।
१. स. प्रति में 'आसत्ता' पाठ है जिसकी संस्कृत 'आसक्ताः' है।
आधीन जिनकेमन-वचन-तन इन्द्रियों के विषयसब। कहे हैं जिनमार्ग में वे संयमी ऋषि आयतन ।।५।। हो गये हैं नष्ट जिनके मोह राग-द्वेष मद। जिनवर कहें वे महाव्रतधारी ऋषि ही आयतन ।।६।।