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चारित्रपाहुड
भावार्थ - जो पदार्थों के यथार्थज्ञान से मूढदृष्टिरहित विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्चारित्र स्वरूप संयम का आचरण करे तो शीघ्र ही मोक्ष को पावे, संयम अंगीकार करने पर स्वरूप के साधनरूप एकाग्र धर्मध्यान के बल से सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानरूप हो श्रेणी चढ़ अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान उत्पन्न कर अघातिकर्म का नाश करके मोक्ष प्राप्त करता है, यह सम्यक्त्वचरण चारित्र का ही माहात्म्य है।।९।। __आगे कहते हैं कि जो सम्यक्त्व के आचरण से भ्रष्ट हैं और वे संयम का आचरण करते हैं तो भी मोक्ष नहीं पाते हैं -
सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जे वि णरा। अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं ।।१०।। सम्यक्त्वचरणभ्रष्टा: संयमचरणं चरन्ति येऽपि नराः।
अज्ञानज्ञानमूढा: तथाऽपि न प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।।१०।। अर्थ - जो पुरुष सम्यक्त्वाचरण चारित्र से भ्रष्ट है और संयम का आचरण करते हैं तो भी वे अज्ञान से मूढदृष्टि होते हुए निर्वाण को नहीं पाते हैं।
भावार्थ - सम्यक्त्वाचरण चारित्र के बिना संयमचरण चारित्र निर्वाण का कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान के बिना तो ज्ञान मिथ्या कहलाता है सो इसप्रकार सम्यक्त्व के बिना चारित्र के भी मिथ्यापना आता है ।।१०।।
आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसप्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र के चिह्न क्या हैं, जिनसे उसको जाने, इसके उत्तरस्वरूप गाथा में सम्यक्त्व के चिह्न कहते हैं -
वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए। मग्गगुणसंसणाए अवगृहण रक्खणाए य ।।११।। एएहि लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अज्जवेहिं भावहिं। जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ।।१२।।
सम्यकचरण से भ्रष्ट पर संयमचरण आचरें जो। अज्ञान मोहित मती वे निर्वाण को पाते नहीं ।।१०।। विनयवत्सल दयादानरु मार्ग का बहुमान हो। संवेग हो हो उपागूहन स्थितिकरण का भाव हो।।११।। अर सहज आर्जव भाव से ये सभी लक्षण प्रगट हों। तो जीव वह निर्मोह मन से करे सम्यक् साधना ।।१२।।