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चारित्रपाहुड ऐश्वर्य, इनका गर्व करना आठ मद हैं, जाति मातापक्ष है, लाभ धनादिक कर्म के उदय के आश्रय है, कुल पितापक्ष है, रूप कर्मोदयाश्रित है, तप अपने स्वरूप को साधने का साधन है, बल कर्मोदयाश्रित है, विद्या कर्म के क्षयोपशमाश्रित है, ऐश्वर्य कर्मोदयाश्रित है, इनका गर्व क्या? परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले का गर्व करना सम्यक्त्व का अभाव बताता है अथवा मलिनता करता है। इसप्रकार ये पच्चीस सम्यक्त्व के मल दोष हैं, इनका त्याग करने पर सम्यक्त्व शुद्ध होता है, वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र का अंग है।।६।। आगे शंकादि दोष दूर होने पर सम्यक्त्व के आठ अंग प्रगट होते हैं, उनको कहते हैं -
णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्ठीय। उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।।७।। निःशंकितं नि:कांक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टी च।
उपगृहनं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ।।७।। अर्थ - नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं।
भावार्थ - ये आठ अंग पहिले कहे हुए शंकादि दोषों के अभाव से प्रगट होते हैं, इनके उदाहरण पुराणों में हैं, उनकी कथा से जानना । नि:शंकित अंग का अंजन चोर का उदाहरण है, जिसने जिनवचन में शंका न की, निर्भय हो छींके की लड़ काटकर के मंत्र सिद्ध किया। नि:कांक्षित का सीता, अनंतमती, सुतारा आदि का उदाहरण है, जिन्होंने भोगों के लिए धर्म को नहीं छोड़ा। निर्विचिकित्सा का उद्दायन राजा का उदाहरण है, जिसने मुनि का शरीर अपवित्र देखकर भी ग्लानि नहीं की। अमूढदृष्टि का रेवतीरानी का उदाहरण है, जिसको विद्याधर ने अनेक महिमा दिखाई तो भी श्रद्धान से शिथिल नहीं हुई।
उपगूहन का जिनेन्द्रभक्त सेठ का उदाहरण है, जिसने चोर, जिसने ब्रह्मचारी का भेष बनाकर छत्र की चोरी की. उसको ब्रह्मचर्यपद की निंदा होती जानकर उसके दोष को छिपाया। स्थितिकरण का वारिषेण का उदाहरण है, जिसने पुष्पदंत ब्राह्मण को मुनिपद से शिथिल हुआ जानकर दृढ़ किया। वात्सल्य का विष्णुकुमार का उदाहरण है, जिनने अकंपन आदि मुनियों का उपसर्ग निवारण किया। प्रभावना में वज्रकुमार मुनि का उदाहरण है, जिसने विद्याधर से सहायता पाकर
निशंक और निकांक्ष अर निग्र्लान दृष्टि-अमूढ़ है। उपगृहन अर थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना ।।७।।