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किया गया है।
ऐसे क्या पाप किए !
९. सर्वविशुद्ध अधिकार -
जीवजीवाधिकार में शुद्धात्मा को श्रद्धा का विषय बनाने के लिए भेदज्ञान की मुख्यता से रागादि भावों को पुद्गलकर्मनिमित्तक होने से पुद्गलद्रव्य का कहा है और यहाँ सर्वविशुद्धि अधिकार में उपादान की मुख्यता एवं कर्ता - कर्म की दृष्टि से राग आत्मा की ही अवस्था होने से आत्मा का कहा गया है। दोनों अपेक्षाएँ जुदी-जुदी हैं, अतः कोई विरोध नहीं है।
इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार को कर्ता-कर्म का उपसंहार भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस अधिकार में प्रकारान्तर से कर्ता-कर्म की ही मुख्य चर्चा की है। जो बातें कर्ता-कर्म अधिकार में अनुक्त रह गई, कारणवश कही नहीं जा सकीं, उन्हें भी यहाँ कह दिया गया है। उदाहरणार्थ - आठ कर्म या एक सौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियाँ आत्मा के रागादि विकारी भावों की कर्त्ता नहीं है - यह बात बहुत विस्तार से यहाँ कही गई है तथा सांख्य, बौद्धादि की एकान्त मान्यताओं का भी यहाँ निराकरण किया गया है।
दूसरी बात, यहाँ सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र रूप साक्षात् मोक्षमार्ग को भी विशद रीति से प्रकट करके प्राणियों को मोक्षमार्ग में स्थापित करने की प्रेरणा दी गई है, जो कुन्दकुन्द के शब्दों में ही द्रष्टव्य है -
मोक्खप अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्च मा विहरसु अण्णदव्वेसु । ।४१२ ।।
हे भव्य ! तू निज आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थापित कर, उसी का ध्यान कर, उसी का अनुभव कर और उसी में निरन्तर विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर !
१०. समयसार में दृष्टान्तों का प्रयोग -
समयसार में सामान्यजनों को समझाने के लिए लौकिक जीवन के
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समयसार : संक्षिप्त सार
ऐसे-ऐसे अनुभूत उदाहरणों का प्रयोग किया गया है जो वस्तुस्थितिको स्पष्ट करने में बहुत सहायक है। जिसप्रकार अनार्यजनों को अनार्य भाषा में समझाये बिना समझ में नहीं आता, उसी प्रकार व्यवहारी जनों को व्यवहार की भाषा और सरल दृष्टान्तों के बिना वस्तुस्वरूप समझ में नहीं आता। इसी कारण समयसार में सूक्ष्म सिद्धान्तों को स्पष्ट करने के लिए आचार्यदेव ने दृष्टान्तों का प्रयोग किया है।
१७वीं १८वीं गाथा में राजा के दृष्टान्त से जीवराज को समझाते हुए कहा है जैसे धनार्थी पहले राजा को पहचानकर अपने मन में ऐसा विश्वास जागृत करता है कि यह वस्तुतः राजा है, यदि मैं इसकी सेवा करूँगा तो मुझे अवश्य ही इससे धन की प्राप्ति होगी, फिर वह उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुष को पहले जीवरूपी राजा को जानना चाहिए, श्रद्धान करना चाहिए और अनुचरण करना चाहिए तथा उसी में तन्मय हो जाना चाहिए।
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३४वीं गाथा में प्रत्याख्यान का स्वरूप समझाने के लिए परवस्तु का दृष्टान्त दिया है। लोक में हुई कोई पर को पर जानकर तुरन्त उसका त्याग कर देता है; उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों को पर जानकर उन्हें त्याग देता है, उससे ममत्व छोड़ देता है।
गाथा ४७ व ४८ में व्यवहारनय के समझाने के लिए सेना सहित राजा के निकलने पर राजा निकला है ऐसा जो कहा जाता है सो वह भी व्यवहार दर्शाया है । ५० से ६० गाथा में इसी को विस्तार से समझाने के लिए ‘व्यक्ति को लुटता देख मार्ग लुटता है' - ऐसा दृष्टान्त देकर समझाया है। इसी प्रकार कर्ता-कर्म अधिकार की गाथा १३० - १३१, पुण्यपापाधिकार की गाथा १६५ - १६६ एवं २२० से २२३, बंधाधिकार की गाथा २४० व २४१ मोक्ष अधिकार की गाथा २८८ से २६० भी द्रष्टव्य हैं। इन सबमें विभिन्न दृष्टान्तों से वस्तुस्वरूप को बहुत ही सरल ढंग से स्पष्ट किया है, जो मूलः पठनीय हैं। इति शुभं । ओं नमः
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