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________________ समयसार : संक्षिप्त सार १७७ १७६ ऐसे क्या पाप किए! में मार्मिक उद्बोधन करते हुए कहा है कि - हे भव्यजन! तुम जरा गहराई से सोचो कि जब तुम्हारा पर में कुछ भी हस्तक्षेप नहीं हो सकता, तुम्हारी कुछ भी नहीं चलती तो फिर तुम क्यों व्यर्थ ही उनमें राग-द्वेष करके कर्मबन्ध करते हो? ___ यदि कोई ऐसा कहे कि - "ये तो निश्चयनय की बातें हैं और हम तो व्यवहारीजन हैं। अतः हमें तो व्यवहार से ऐसा ही मानना पड़ेगा कि - हम दूसरों का भला-बुरा कर सकते हैं।" तो उसका समाधान करते हुए आचार्य २७२वीं गाथा में कहते हैं कि - "निश्चय-नयाश्रित ज्ञानी जन ही निर्वाण की प्राप्ति करते हैं। इसी संदर्भ में समयसार गाथा २७३ से २७५ मूलतः द्रष्टव्य हैं। ८. मोक्ष अधिकार : सम्यकपुरुषार्थ अधिकार - इस अधिकार में मोक्षप्राप्ति के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित चार बिन्दुओं पर विचार किया गया है - (१) सम्यक्पुरुषार्थ (२) भेदविज्ञान सहित विराग (३) परद्रव्य का ग्रहण करना अपराध (४) निश्चय से प्रतिक्रमण भी विषकुम्भ । इन चारों बिन्दुओं का मोक्ष एवं मोक्षमार्ग से सीधा सम्बन्ध है। सर्वप्रथम सम्यक्पुरुषार्थ पर जोर देते हुए कहा है कि - "जीव अनादि काल से जिन कर्मों से बँधा है उनसे छूटने के लिए उन्हें मात्र जान लेने और उनके प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग आदि तथा उदय, उदीरणा, बन्ध एवं सत्त्व आदि भेद-प्रभेदों की सूक्ष्म चर्चा कर लेने से भी मुक्ति नहीं मिलती। तात्पर्य यह है कि गम्भीर चर्चा-वार्ता एवं उसके स्वरूप का बारम्बार चिन्तन-मनन मुक्ति के सीधे साधन नहीं है। मुक्ति के लिए कर्मबन्ध के कारण मोह-राग-द्वेष का नाश करना आवश्यक है, जो कि भेद-विज्ञान से होता है। जिसप्रकार प्रज्ञाछैनी द्वारा कर्मों से आत्मा का भेदज्ञान किया जाता है, उसीप्रकार प्रज्ञाछैनी से ही कर्मों के त्यागपूर्वक निजात्मा का ग्रहण होता है। जब ज्ञानी जीव प्रज्ञा से जीव व कर्म के स्वभाव को भिन्न-भिन्न जानकर यह निश्चय करता है कि दुःख के कारणभूत बन्ध छेदने योग्य है और सुखस्वरूप शुद्ध आत्मा ग्रहण करने योग्य है, तब वह रागादि कर्मों से विरक्त हो जाता है और तभी उसका कर्मबन्धन से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त होता है। उस समय उसको प्रज्ञा द्वारा ऐसा विचार आता है कि जो चिदात्मा है, निश्चय से मैं वह हूँ, जो ज्ञाता-द्रष्टा है वह मैं हूँ, अर्थात् मैं चिदात्मा हूँ, ज्ञाता-दृष्टा हूँ, इसके अतिरिक्त सब भाव मुझसे पर हैं, वे मेरे नहीं है, अतः त्याज्य हैं। आचार्य कहते हैं कि “जिस प्रज्ञा के द्वारा भेदज्ञान किया जाता है, उसी प्रज्ञा के द्वारा आत्मा का ग्रहण करना चाहिए।" ज्ञायक स्वभाव से भ्रष्ट होना ही अपराध है 'अपगत राधः इति अपराधः' । 'राध' शुद्धात्मा की आराधना को कहते हैं, अतः जो आत्मा राध रहित है - शुद्धात्मा की आराधना से रहित है, ज्ञायकस्वभाव से भ्रष्ट है, वह अपराध है। जब प्रज्ञा से शुद्धात्मा ग्रहण होता है, तब आत्मा निरपराधी होता है। व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि आत्मा प्रतिक्रमण से शुद्ध होता है, परन्तु वस्तुतः प्रतिक्रमणादि पुद्गलाधीन हैं, वे बन्ध के कारण हैं। शुद्धात्मतत्त्व तो प्रतिक्रमण से रहित है। इस दृष्टि से द्रव्य व भाव - दोनों ही प्रतिक्रमण विषकुंभ हैं। ___जो मुनिराज प्रतिक्रमणादि के विकल्प से भी रहित हो गये हैं, वे आत्मानुभवी शुद्ध ज्ञान-दर्शन सहित हैं। ऐसे पुरुष थोड़े ही समय में कर्म रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसप्रकार इस अधिकार में मोक्षतत्त्व के सम्यक् साधनों पर विचार १. समयसार गाथा ३०४ की 'आत्मख्याति' टीका २. समयसार नाटक, मोक्ष द्वार, छन्द ४३ (89)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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