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ऐसे क्या पाप किए!
को, प्रेम करने को, परिग्रह पाप मानते हैं। जबकि ये ही यथार्थ परिग्रह पाप हैं। यद्यपि इनके त्याग बिना केवल बाह्य परिग्रह के त्याग की धर्म के क्षेत्र में कुछ भी कीमत नहीं है; फिर भी परिणामों की विशुद्धि के लिए परोपकार की भावना से प्राप्त अर्थ का सदुपयोग अच्छे कार्यों में करना ही चाहिए। दान की परिभाषा में कहा भी है -
'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्' धन उस कुएं की झर की तरह है, जिससे दिनभर कितना भी पानी खर्च कर दो, रात में कुआं प्रतिदिन अपनी झरों के द्वारा उतना ही पानी भरता ही रहता है। यदि उस पानी को नहीं निकालेंगे तो वह पानी तो सड़ ही जायेगा और नया पानी आना भी बंद हो जायेगा। अत:
पानी बाड़े नाव में, घर में बाड़े दाम । दोनों हाथ उलीचिए यही सयानो काम ।।
धन की केवल तीन गतियाँ होती है - दान-भोग और नाश, जो व्यक्ति प्राप्त धन का न दान देते हैं, न भोग करते हैं, उनका धन नियम से नष्ट हो जाता है।
दानं भोगं नाशं, तिस्त्र: गतयः भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुक्ते तृतीयोगति भवति तस्य।। सत्कार्यों का क्षेत्र बहुत व्यापक है, जिसका दातार ही अपनी दृष्टि के अनुसार निर्णय करते हैं, चार प्रकार के दानों में ज्ञानदान को जिनागम में सर्वश्रेष्ठ माना है। प्यासे को पानी पिलाने से हम उसका ४ घंटे का दुःख दूर करते हैं, भूखे को भोजन देकर ८ घंटे की आकुलता कम करते हैं, रोगी को औषधि देकर ४-६ माह का दु:ख दूर करते हैं और अज्ञानी को तत्त्वोपदेश देकर हम उसके जन्म-जन्मान्तर सुधार सकते हैं। अत: यथाशक्ति सभी दान करना चाहिए।
अतः सभी बन्धुओं से विनम्र निवेदन है कि भाग्य से प्राप्त धन को अच्छे कार्यों में खूब खर्च करो।
जैन साधु दिगम्बर क्यों होते हैं यहाँ 'दिगम्बर' शब्द का अर्थ है - दिशायें ही अम्बर (वस्त्र) जिनके, वे साधु दिगम्बर कहलाते हैं। वे वस्त्र पहनते ओढ़ते नहीं है। जैन साधु पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त और सभी प्रकार के आरंभ परिग्रह से रहित ज्ञान-ध्यान व तप में निमग्न रहते हैं, इस कारण वे नग्न ही रहते हैं, दिगम्बर ही रहते हैं। धरती उनका बिछौना एवं आकाश उनका उड़ौना होता है।
दिगम्बर मुनियों के हृदय में सब जीवों के प्रति पूर्ण समता भाव होता है। उनकी दृष्टि में शत्रु-मित्र, महल-मसान, कंचन-काँच, निन्दा-प्रशंसा आदि में कोई अन्तर नहीं होता। वे पद पूजक व अस्त्र-शस्त्र प्रहारक में सदा समता भाव रखते हैं। ___ जैन साधु पूर्ण स्वावलम्बी और स्वाभिमानी होते हैं, उन्हें किंचित् भी पराधीनता स्वीकृत नहीं हैं, एतदर्थ दिगम्बरत्व अनिवार्य है। सवस्त्र कभी पूर्णरूपेण स्वावलम्बी नहीं रहा जा सकता । वस्त्रों के साथ कितनी पराधीनता है - यह बात किसी भी वस्त्रधारियों से छिपी नहीं है। अतः जैन साधु नग्न दिगम्बर ही होते हैं। ___ जब अर्द्धरात्रि में सारा जगत मोहनींद में सो रहा होता है। अथवा विषयावासनाओं में मग्न होकर मुक्ति के निष्कंटक पथ में विषकंटक वो रहा होता है, तब जैन साधु-दिगम्बर मुनि अनित्य अशरण आदि बारह भावनाओं के माध्यम से संसार, शरीर व भोगों की असारता का एवं जगत के स्वरूप का चिन्तन-मनन करते हुए आत्मध्यान में मग्न रहने का पुरुषार्थ करते रहते हैं। काम-क्रोध, मद-मोह आदि विकारों पर विजय प्राप्त करते हुए अपना मोक्ष मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं।
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