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________________ १३६ ऐसे क्या पाप किए ! भी सभी करते ही हैं, पर बनते वही हैं जिनके भाग्य में होता है।"भाग्यात् परं नैश ददाति किंचित्' इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं, यह बात बच्चा-बच्चा जानता है। मैंने एक आठ वर्ष के बच्चे से पूछा - "बताओ! तुम्हारी कक्षा में जो ४० बालक हैं, उन सबकी शकल एक-सी है, अकल एक-सी है, पालकों की परिस्थितियाँ एक जैसी हैं, सबके उत्तर थे नहीं, नहीं, नहीं। एक गरीब के घर जन्मा और दूसरा अमीर के घर क्यों जन्मा ?" उत्तर था - “पूर्वजन्म में जिसने जैसे पुण्य-पाप किये उसे वैसा ही फल मिला है; तुलसीदास ने साफ कहा है - कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जे जस करे सो तस फल चाखा" अतः भाईसाहब पैसा पाप नहीं है, धन-दौलत पाप नहीं। ये तो पुण्य के फल हैं, किन्तु फिर भी इस बाह्य परिग्रह को पापों में क्यों गिना और परिग्रह को सबसे बड़ा पाप क्यों कहा ? सोचा है कभी इस विषय पर ? यदि नहीं तो सुनिए। “निःसन्देह धन-दौलत आदि बाह्य परिग्रह पाप नहीं, बल्कि इसमें मूर्छा होना परिग्रह पाप है। मूर्छा का अर्थ है ममत्व करना, एकत्व करना। 'वैभव मेरा है, इसी से मैं बड़ा हूँ' - यह एकत्वममत्वबुद्धि ही सबसे बड़ा पाप है। इनका अनावश्यक संग्रह करना और प्राप्त भोगोपभोगों में तन्मय होना भी पापभाव है। यदि परिग्रह पाप होता तो सर्वाधिक परिग्रह वाले भरत चक्रवर्ती पुण्यात्मा और धर्मात्मा कैसे कहे जाते ? जबकि उन्हें घर में ही वैरागी' कहा गया है। अत: वस्तुतः वैभव में मूर्छा होना परिग्रह है। एक साधु था, उसने भिक्षा में माँग-माँगकर सौ मुहरे खरीदीं और वह उन्हें गुदड़ी में छिपाकर सीने से लगाकर रखता। चोरी के भय से अपने शिष्य से कहता - गंगाराम जागते रहना, गंगाराम की समझ में अपरिग्रह की बात करनेवालों के पास अधिक परिग्रह क्यों? १३७ नहीं आता; गुरुजी मुझे रात को सोने क्यों नहीं देते? इन्हें क्या डर है ? एक दिन उसने गुदड़ी खोली, उसमें १०० मुहरे छिपी थीं, उस निर्मोही शिष्य ने उन्हें गुदड़ी में से निकाल कर पास के कुएं में डाल दिया और जब मोही गुरुजी ने कहा - जागते रहना गंगाराम तो गंगाराम ने कहा - "गुरुजी अब निश्चिन्त सो जाओ। आपका डर मैंने कुएं में डुबो दिया। वह साधु मुहरों से नहीं, उनके मोह से बैचेन था, अत: मोह ही परिग्रह है। ____ यदि अकेले रुपयों-पैसों को ही परिग्रह मानेंगे तो जिन भिखारियों के पास पैसा नहीं और पशुओं के पास तो पैसा है ही नहीं तो क्या वे इस पाप से मुक्त हैं? नहीं; क्योंकि ममत्व तो उनमें भी असीमित है। अतः पैसे में ममत्व का त्याग ही अपरिग्रह है। अपने भावों की विशुद्धि के लिए इस भोग सामग्री का भी त्याग तो करना ही चाहिए और प्राप्त धन-धान्य आदि को सत्कार्यों में खर्च करना चाहिए। यह बात जुदी है कि सत्कार्यों की परिभाषा क्या हो? जिनागम में तो छह खण्ड का वैभव होते हुए भी ममत्व परिणाम न रहने से भरतजी को घर में ही 'वैरागी' की संज्ञा प्राप्त थी। इससे स्पष्ट है कि पैसा होना परिग्रह पाप नहीं है, बल्कि उसमें ममत्व ही परिग्रह पाप है। इसका अर्थ यह हुआ कि वस्तुतः मिथ्यात्व आदि अंतरंग परिग्रह ही सबसे बड़ा पाप है, जिसे लोग पाप में ही नहीं गिनते। __ अंतरंग परिग्रह १४ प्रकार के हैं - (१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध, (३) मान, (४) माया, (५) लोभ; (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) शोक, (१०) भय, (११) जुगुप्सा, (१२) स्त्रीवेद, (१३) पुरुषवेद और (१४) नपुंसक वेद - ये १४ भेद अंतरंग परिग्रह हैं। अब हम जरा सोचें, विचार करें कि क्या हम हंसने को कभी परिग्रह पाप मानते हैं, पत्नी से-पुत्र से-परिवार से रति अर्थात् राग करने (69)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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