________________
ऐसे क्या पाप किए!
भक्तामर स्तोत्र : एक निष्काम भक्ति स्तोत्र
७७
(५) दिगम्बरों के मतानुसार - "ग्यारहवीं सदी (लगभग १०२५ ई.) के दिगम्बराचार्य महापण्डित प्रभाचन्द्राचार्य ने 'क्रियाकलाप' ग्रन्थ की अपनी टीका की उत्थानिका में लिखा है कि मानतुङ्ग नामक श्वेताम्बर महाकवि को एक दिगम्बराचार्य ने महाव्याधि से मुक्त कर दिया तो उसने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा कि भगवन ! अब मैं क्या करूँ ? तब आचार्य ने आदेश दिया कि परमात्मा के गुणों को गूंथकर स्तोत्र बनाओ। फलत: मानतुङ्ग मुनि ने इस भक्तामर स्तोत्र की रचना की।”
भक्तामर स्तोत्र में जिनेन्द्र भगवान के रूप-सौन्दर्य का, उनके अतिशयों और प्रतिहार्यों का तथा उनके नाम-स्मरण के माहात्म्य से स्वतः निवारित भयों एवं उपद्रवों का अच्छा संतुलित वर्णन किया गया है। इसमें अनावश्यक पाण्डित्य प्रदर्शन से स्तोत्र को बोझिल नहीं होने दिया गया है
और न ही समन्तभद्र की तरह तार्किकता एवं दार्शनिकता भी इसमें है। यद्यपि दार्शनिकता व तार्किकता के कारण समन्तभद्राचार्य के स्तोत्र उच्चकोटि के शास्त्र बन गये हैं, परन्तु वे दार्शनिकता के कारण भक्तामर की तरह प्रतिदिन पाठ करने के लिए जन-जन के विषय नहीं बन पाये। आचार्य समन्तभद्र की तार्किक बुद्धि और दार्शनिक चिन्तन उनके हृदयपक्ष पर हावी रहा, परन्तु इससे उनके स्तोत्रसाहित्य में भी यह विशेषता रही कि भावुकतावश होनेवाले कर्तृत्वादि के आरोपित कथन उनके स्तोत्रों में नहीं आने पाये।
देवागमस्तोत्र, स्वयंभूस्तोत्र, एकीभावस्तोत्र एवं कल्याणमंदिर स्तोत्र की भाँति ही इस स्तोत्र का नाम भी प्रथम छन्द के प्रथम पद के आधार पर ही प्रचलित हुआ है। इसका दूसरा नाम आदिनाथ स्तोत्र या ऋषभस्तोत्र भी है। दूसरे नाम के संदर्भ में विचारणीय बात यह है कि मात्र 'प्रथम जिनेन्द्र' और 'युगादौ पदों से ही यह आदिनाथ स्तोत्र' भी कहा जाता है।
“यदि ‘प्रथमं जिनेन्द्र' का अर्थ जिनेन्द्रों (अरहन्तों) में प्रमुख अर्थात् तीर्थंकरदेव कर लिया जाय तथा युगादौ का अर्थ यह युग प्रथम तीर्थंकर के जन्म से प्रारम्भ होता है, यह माना जाय तो यह सामान्यतया सभी तीर्थंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है। वैसे भी स्तोत्र में कहीं भी किसी भी तीर्थंकर विशेष का नामादि परिचयसूचक कोई स्पष्ट संकेत नहीं है।"५ । ___"भक्तामरस्तोत्र के काव्यों की संख्या में भी कुछ मतभेद हैं। केवल मन्दिर-मार्गी श्वेताम्बर जैन इस स्तोत्र की काव्य संख्या ४४ मानते हैं। शेष सभी दिगम्बर जैन, स्थानकवासी एवं तेरापंथी श्वेताम्बर आदि एक मत से ४८ काव्य ही मानते हैं। ४४ काव्यों के माननेवाले ३२ से ३५ तक चार काव्यों को नहीं मानते, इन्हें प्रक्षिप्त कहते हैं; परन्तु इससे उनके यहाँ चार प्रातिहार्यों का वर्णन छूट जाता है, जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी पूरे आठ प्रातिहार्य माने गये हैं। ___ कल्याणमन्दिर स्तोत्र में भी भक्तामर की तरह पूरे आठ प्रातिहार्यों का वर्णन है और उसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी अविकलरूप से मानता है। तब फिर भक्तामर के उक्त चार काव्यों को क्यों नहीं मानता ? सम्भव है, कल्याणमन्दिर स्तोत्र में ४४ ही काव्य हैं, अतः भक्तामर में भी ४४ ही होने चाहिए - इस विचार से ऐसा किया हो।"२ अस्तु - ___भक्तामरस्तोत्र के कर्ता मानतुङ्ग सूरि कौन थे, कब हुए ? ये विषय इतिहास की शोध खोज का विषय है। ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक १० मानतुङ्ग सूरि हुए हैं, उनमें भक्तामर स्तोत्र के कर्ता कौन थे - यह कह पाना कठिन है। ___ इस स्तोत्र के कर्ता मानतुङ्ग कवि को कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों ने हर्षवर्द्धन के समकालीन बताया है। चूँकि सम्राट हर्षवर्द्धन का समय ७वीं शती है, अत: मानतुङ्ग का समय भी ७वीं शताब्दी होना चाहिए।' १. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : भक्तामर रहस्य की प्रस्तावना, पृष्ठ-२८ २. पं. रतनलाल कटारिया : जैन निबन्ध रत्नावली, पृष्ठ ३३८ ३. वही, पृष्ठ-३३९
१. अनेकान्त अंक १९९६, पृष्ठ २४५
(39)