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ऐसे क्या पाप किए !
(२) कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं लिखते हैं
“जो नित्य है, निरंजन है, शुद्ध हैं तथा तीनलोक के द्वारा पूजनीय हैं • ऐसे सिद्ध भगवान मुझे ज्ञान दर्शन व चारित्र में श्रेष्ठ भाव की शुद्धता दो।
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इसीप्रकार और भी देखिये -
(३) तीर्थ और धर्म के कर्ता श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार हो । (४) तीनों लोकों के गुरु और उत्कृष्टभाव के अद्वितीय कारण हे जिनवर ! ! मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जावे। हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए यही एक बात मुझे आपसे कहनी है, चूँकि मैं इस संसार से अतिपीड़ित हूँ, इसलिए मैं बहुत बोल गया हूँ" ३ इत्यादि ।
इसतरह हम देखते हैं कि व्यवहारनय द्वारा वीतरागी और सर्वथा अकर्ता भगवान के लिए कर्तृत्व की भाषा का प्रयोग व्यवहारनय से असंगत नहीं है। जिनवाणी में ऐसे प्रयोग सर्वत्र हैं ।
बोलचाल की भाषा में ऐसा कहना व्यवहार है; किन्तु जैसा कहा, उसे वैसा ही मान लेना मिथ्यात्व है।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं- “यद्यपि वीतरागी परमात्मा को भी जिनवाणी में एवं स्तुति पाठादि में पतितपावन, अधमउधारक आदि विशेषण कहे हैं, सो फल तो अपने परिणामों का लगता है, अरहन्त तो उनको निमित्तमात्र हैं, इसलिए उपचार द्वारा वे विशेषण
१. दितु वर भावशुद्धिं दंसण णाणे चरित्तेयभावपाहुड़ १६३
२. पणमामि बढ़माणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं । प्रवचनसार, गाथा १
३. त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दन्दैककारणं कुरुष्व ।
मयि किंकरेऽत्र करुणां यथा जायते मुक्तिः || १ || अपर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये । तेनातिदग्ध इति मे देव वभूव प्रलापित्वम् ||६||
- पद्मनन्दी पंचविंशति, करुणाष्टक
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भक्तामर स्तोत्र एक निष्काम भक्ति स्तोत्र
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संभव होते हैं। अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहंत ही स्वर्ग-मोक्ष के दाता नहीं हैं।
पण्डित श्री मिलापचन्द रतनलाल कटारिया ने अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि "मंत्र-तंत्रवादी भट्टारकों ने इस सरल और वीतराग स्तोत्र को भी मंत्र-तंत्रादि और कथाओं के जाल से गूँथकर जटिल और सराग बना दिया है, इसके निर्माण के संबंध में भी प्रायः मनगढ़ंत कथायें रच डाली हैं।
ये निर्माण - कथायें कितनी असंगत, परस्पर विरुद्ध और अस्वाभाविक हैं - यह विचारकों से छिपा नहीं है। किसी कथा में मुनि श्री मानतुन को राजा भोज का समयवर्ती बताया है तो किसी में कालिदास का तथा किसी में बाण, मयूर आदि के समय का बताया है, जो परस्पर विरुद्ध हैं।
राजा ने कुपित होकर मुनिश्री मानतुंग को ऐसे कारागृह में बन्द कर दिया, जिसमें ४८ कोठे थे और प्रत्येक कोठे के दरवाजे में एक-एक ताला था - ऐसा जो एक कथा में बताया है, यह भी विचारणीय है; क्योंकि प्रथम तो वीतराग जैन साधु को जिसके पास कोई शस्त्रादि नहीं, कैसे कोई राजा ऐसा अद्भुत दण्ड दे सकता है ? और फिर ऐसा विलक्षण कारागार भी संभव नहीं है। जिसमें एक के अन्दर एक ऐसे ४८ कोठे हों। सही बात तो यह है कि ४८ छन्द होने से बिना सोचे-विचारे ४८ कोठे और ४८ तालों की संख्या लिख दी है, यदि छन्द कम-ज्यादा होते तो कोठे भी कम-ज्यादा हो जाते। श्वेताम्बर ४४ छन्द ही मानते हैं, अत: उन्होंने बन्धन भी ४४ ही बताये हैं। इसतरह उन कथाओं में और भी अनेकानेक विसंगतियाँ हैं, जो थोड़े से विचार से ही पाठक समझ सकते हैं। " २
अड़तालीस ताले टूटने की कथा दिगम्बाराचार्यों की मान्यता नहीं
है। ये किसी अन्य की मनगढंत कल्पित कथा है।
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय ७, पृष्ठ २२२ २. जैन निबन्धरत्नावली, पृष्ठ ३३७