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ऐसे क्या पाप किए!
निमित्त को स्वीकार न करे तो ज्ञान झूठा और निमित्त से कार्य होना माने तो श्रद्धा झूठी। समयसार गाथा ८४ के भावार्थ में पण्डित प्रवर जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - “पुद्गल द्रव्य को परमार्थ से पुद्गल द्रव्य ही करता है, जीव तो पुद्गल कर्म की उत्पत्ति के अनुकूल अपने रागादिक परिणामों को करता है; और पुद्गलद्रव्य ही कर्मों को भोगता है; परन्तु जीव और पुद्गल का ऐसा निमित्त-नैमित्तिक भाव देखकर अज्ञानी को ऐसा भ्रम होता है कि जीव पुद्गल कर्म को करता है और भोगता है। अनादि अज्ञान के कारण ऐसा अनादि काल से प्रसिद्ध व्यवहार
आगे प्रवचनसार गाथा ८५ के भावार्थ में कहा है - "दो द्रव्यों की क्रिया भिन्न ही है। जड़ की क्रिया को चेतन नहीं करता और चेतन की क्रिया को जड़ नहीं करता।" गाथा ८६ के भावार्थ में कहा है - “आत्मा
और पुद्गल - दोनों की क्रिया एक आत्मा ही करता है - ऐसा माननेवाले मिथ्यादृष्टि है।"
सारांश यह है कि निमित्त सदा उपेक्षणीय है, हेय है। आश्रय करने लायक नहीं है, अतः उपादेय नहीं है।
स्व की अपेक्षा और पर की उपेक्षा से ही स्वात्मोपलब्धि संभव है। आत्मोपलब्धि का अन्य उपाय नहीं है।
हम सब ज्ञानस्वभावी ध्रुव उपादानस्वरूप मंगलमय निज आत्मा का उग्र आश्रय कर साध्य उपादेय निष्कर्म अवस्था को पर्याय में प्रकट करें। उपादान-निमित्त समझने का यही प्रयोजन है।
(स्व. बाबूभाई स्मृति विशेषांक से)
निज परिणति से हम दूर हुए
- पण्डित रतनचन्द भारिल्ल परिजन के पालन की धुन में, धन संचय की उधेड़बुन में, पर को समझाने के चक्कर में। निज को समझाना भूल गये, निज परिणति से हम दूर हुए।
सब धन की धुन में हैं अटके, पर परिणति में ही हैं भटके। पर के सत्पथ दिग्दर्शन में, संकल्प-विकल्प सहस्त्र हुए।
निज परिणति से हम दूर हुए। पर से सुख पाने के भ्रम में, वैभव संग्रह के श्रम में, पर में ही हम मसगूल हुए। थक-थक कर हम चकचूर हुए। निज परिणति से हम दूर हुए।।
पद पाने की धुन के पक्के, खाकर के भी सौ-सौ धक्के, सच्चे झूठे वायदे करके। पद पाने में हैरान हुए निज परिणति से हम दूर हुए।।
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