________________
ऐसे क्या पाप किए !
उपादान निज शक्ति है, जिय कौ मूल स्वभाव
विश्व में छह जाति के द्रव्य हैं, वे सभी अपनी-अपनी त्रिकाली ध्रुव उपादान शक्ति और क्षणिक योग्यतारूप उपादान शक्ति (सामर्थ्य) से भरपूर हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही सर्व शक्ति सम्पन्न है । प्रत्येक द्रव्य अपनी उस त्रैकालिक और क्षणिक योग्यतारूप उपादान शक्ति से स्वचतुष्टय में ही विलास करता है। स्वयं सामर्थ्यवान होने से उनको किसी भी परद्रव्य की मदद, सहायता की अपेक्षा नहीं है, किसी पर द्रव्य का उन पर कोई प्रभाव या असर भी नहीं है। उपादान निजशक्ति है, निमित्त परशक्ति है। निमित्त को उचित बहिरंग कारण भी कहते हैं।
निमित्त भी स्वयं में स्वतंत्र वस्तु होने से अपने ध्रुव उपादानरूप व वर्तमान क्षणिक उपादानरूप सामर्थ्य से पर की अपेक्षा बिना प्रति समय अपने स्व-अवसर में परिणमन करता रहता है। नित्य परिणमन कर रहे निमित्तों को पर की सहायता करने की फुर्सत ही कहाँ ? और जब वस्तु स्वयं ही पर की सहायता के बिना अपने उपादान से कार्य करने में समर्थ है तो वहाँ निमित्तों की सहायता की उसे जरूरत ही कहाँ है?
कहा भी है- “सधै वस्तु असहाय, तहाँ निमित्त है कौन?"
जब वस्तु पर की सहायता बिना ही अपना कार्य करने में सक्षम है तो वहाँ निमित्त हस्तक्षेप करने वाले कौन होते हैं? अतः निमित्त अकिंचित्कर ही है, वे पर में कुछ भी नहीं करते ।
जब वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता का ऐसा सुन्दर स्वाधीन विधान है, वस्तुस्थिति का ऐसा अकाट्य नियम है, तब स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जगत निमित्त सामग्री को जुटाने की चेष्टा में इतना व्यग्र क्यों होता है, व्यर्थ खेद - खिन्न क्यों होता है?
(128)
प्रवचनसार की १६वीं गाथा की टीका में कहा गया है कि “निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है कि जिससे शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढ़ने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं।” आगे इसी गाथा के भावार्थ में कहा है कि - " द्रव्य स्वयं ही अपनी अनन्तशक्तिरूप सम्पदा से परिपूर्ण है, इसलिए स्वयं ही छहकारक रूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ है, उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है।" इसप्रकार भगवान आत्मा स्वयम्भू है । स्वयम्भू सदा सत् व अहेतुक होता है।
प्रत्येक द्रव्य " कारणानुविधायीनिकार्याणि” के नियमानुसार अपने उपादानरूप कारण का अनुसरण करके निमित्तों से निरपेक्ष रहकर ही परिणमता है। फिर भी वहाँ तदनुकूल बहिरंग निमित्त होता अवश्य है, क्योंकि कारण-कार्य व्यवस्था का ऐसा ही सहज सम्बन्ध है।
अन्तरंग, बहिरंग, प्रेरक, उदासीन वलाधान या प्रतिबन्धक आदि किसी प्रकार का कोई भी निमित्त उपादान में कुछ कार्य नहीं करता। इस बात का समर्थन करते हुए इष्टोपदेश की गाथा ३५ में स्पष्ट किया है कि " समस्त परद्रव्यरूप निमित्त-गतेर्धर्मास्तिकायवत्" उदासीन ही हैं।" मात्र निमित्तों का परस्पर अन्तर स्पष्ट करने के लिए ऐसे भेद किये हैं; किन्तु कार्य में कोई भी परद्रव्य प्रभाव नहीं डाल सकते । इसी समझ का नाम सच्चा इष्टोपदेश है।
जिसतरह जब जीव और पुद्गल स्वयं गमन करे तब धर्मास्तिकाय निमित्त होता है। धर्मास्तिकाय चलाता नहीं, कुछ प्रभाव डालता नहीं, मदद सहायता नहीं करता, उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी शक्ति अनुसार स्वयं परिणामित होते हैं। इतना अवश्य है कि जब कार्य होता है, तब निमित्त होता अवश्य है, परन्तु उससे कार्य नहीं होता।