________________
२०४
ऐसे क्या पाप किए ! प्राप्त करने के लिए तू उत्सुक होता है और जिस अतीन्द्रिय आनन्दमय मोक्ष सुख को तूने आजतक नहीं भोगा, उसे पाने की चेष्टा नहीं करता। अत: संसार की असारता का विचार कर और सुखस्वरूपी आत्मा में उपयोग स्थिर कर।"
एकत्वभावना का चिन्तन करते हुए जीवन्धरकुमार विचार करते हैं कि
"इस संसार में धर्म ही एकमात्र ऐसा है जो जीव को परलोक के सुख का साथी होता है। पुण्योदय से प्राप्त शेष सब संयोग यहीं रह जाते हैं। जैसे कि - बन्धुगण श्मशान तक ही साथ देते हैं, धन घर में ही पड़ा रह जाता है और शरीर चिता की भस्म बनकर रह जाता है।
हे आत्मन ! जब अकेला तू ही स्वयं कर्मों का भोक्ता और कर्मों का नाशक है तो स्वाधीनता से प्राप्त होनेवाली मुक्ति को या आत्मस्वभाव को प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों नहीं करता?" ___ अन्यत्वभावना का चिन्तन करते हुए सोचते हैं कि “आत्मन ! तू शरीर में आत्मबुद्धि कभी भी मत कर; क्योंकि यद्यपि कर्मोदयवश देह और आत्मा एकमेक हो रहे हैं; तथापि जैसे तलवार म्यान से जुदी रहती है, वैसे ही शरीर में रहते हुए भी तू शरीर से अलग है।"
इसीप्रकार अशुचिभावना के माध्यम से शरीर की अशुचिता का विचार करते हैं कि - जिस शरीर के सम्पर्क से पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं तथा जो रज-वीर्य आदि मलों से उत्पन्न होता है, वह शरीर पवित्र कैसे हो सकता है?
आस्रव और संवरभावना को भाते हुए सोचते हैं कि - हे आत्मन ! तू तत्त्वज्ञान के अभ्यास से आस्रव के कारणभूत विकथा और कषायों से रहित होकर, धन-धान्यादि बाह्य पदार्थों से ममता त्याग दे तो तुझे व्रत, समिति, गुप्ति और तप आदि स्वतः हो जाएँगे। इसीप्रकार सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की आराधना से तेरे सम्पूर्ण संचित कर्म भी निर्जर जाएँगे और तू बन्धरहित होकर लोकान्त में विराजमान हो जाएगा।
क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति
इसीप्रकार निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म भावनाओं का चिन्तन-मनन करते हुए महाराज जीवन्धर का चित्त बोधिदुर्लभ एवं धर्मभावना में विशेष रम गया। वे सोचते हैं - __ हे आत्मन ! रत्नत्रय धर्म और साधना के साधनभूत भव्यपना, मनुष्यपर्याय, सुन्दर स्वस्थ शरीर और अच्छे कुल में उत्पत्ति - इनमें एक-एक का पाना अति दुर्लभ है और तेरे पुण्योदय से तुझे पाँचों सुलभ हो गए हैं, फिर भी यदि धर्म में रुचि नहीं हुई तो सब व्यर्थ ही हैं। धर्मभावना में वीतराग धर्म के स्वरूप का चिन्तन करते हुए सोचते हैं कि - वस्तुत: तो वह निश्चय रत्नत्रय ही धर्म है, जिसमें 'वस्तु स्वातन्त्र्य' के सिद्धान्त के द्वारा कारण परमात्मा के रूप में भगवान आत्मा की अनन्त शक्तियों और अनन्तगुणों की स्वतन्त्र सत्ता का बोध कराया गया है तथा आत्मा का पर में एकत्व-ममत्व एवं पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्व से भेदज्ञान कराया गया है। ऐसे धर्म के धारक और आराधक पशु भी अपनी पामर पर्याय छोड़कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं और जो ऐसे धर्म को नहीं जानते, ऐसे वीतराग धर्म की आराधना नहीं करते वे देवपर्याय से मरकर कुत्ते जैसी हीन पशु की पर्याय में चले जाते हैं। अत: हमें सदैव वीतराग धर्म की ही आराधना करना चाहिए।
इसप्रकार बारह भावनाओं का चिन्तवन करने से जीवन्धरकुमार के वैराग्य में और भी अधिक वृद्धि हुई। फलस्वरूप वे भी गृहविरक्त होकर आत्मसाधना में तत्पर हो गए और कुछ काल बाद केवलज्ञान प्राप्तकर अजर-अमर सिद्धपद को प्राप्त हो गए। जो भी व्यक्ति इस 'जीवन्धरचरित्र' का मन लगाकर अध्ययन-मनन-चिन्तन करेंगे, उनका लौकिक जीवन तो उज्वल होगा ही, पारलौकिक जीवन भी मंगलमय हो जाएगा। शुभमस्तु!
(103)