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क्षत्रचूडामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कति
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ऐसे क्या पाप किए ! नाटक करके अपनी प्रेमिका को मनाना पड़ा, किन्तु बगीचे के मालिक ने वह कटहल का फल उसकी प्रेमिका से छीन लिया।
इस घटना को देखकर महाराजा जीवन्धर विचार करते हैं कि देखो ! यह कटहल राज्य के समान है, मैं इस वनपाल के समान हूँ और काष्ठांगार बंदर के समान है। यह राज्य किसी का न हुआ है, न हो सकता है। यह तो जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत को चरितार्थ कर रहा है। अत: मुझे भी इस राज्य का त्याग कर अपने आत्मा का कल्याण करना चाहिए। यह संसार ही क्षणभंगुर है, जगत स्वार्थी है और यह सब पुण्य-पाप की विडम्बना है। मोह के चक्र में उलझा रहकर मुझे अपना शेष अमूल्य मानवजीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए। इसप्रकार उस वसन्त महोत्सव में वानरवानरी और वनपाल की घटना से महाराजा जीवन्धर भी संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गए।
जिनवाणी के मर्मज्ञ वैराग्य को प्राप्त महाराजा जीवन्धर ने उस उपवन से लौटते हुए मार्ग में जिनमन्दिर में जाकर जिनेन्द्र अर्चना की तथा वहाँ विराज रहे चारणऋद्धिधारी मुनिराज से धर्मोपदेश सुना । मुनिराज ने अपने उपदेश में महाराजा जीवन्धर के वैराग्य को बढ़ाने में निमित्तभूत उनके ही पूर्वजन्म का वृत्तान्त भी सुनाया। फलस्वरूप वे घर पहुँचकर अपने पुत्र सत्यन्धर का राजतिलक करके अपनी आठों पत्नियों सहित महावीर भगवान के समवशरण में पहुँचे। वहाँ स्तुति-वन्दना के उपरान्त वैरागी जीवन्धरकुमार ने बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा जो संसार के स्वरूप का और वस्तुस्वरूप का विचार किया वह विस्तृत रूप से तो ग्रन्थकार की भाषा में ही मूलत: पठनीय है; परन्तु पाठकों के लाभार्थ उसका संक्षिप्त सार यहाँ दे रहे हैं; जो इसप्रकार है -
बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हुए जीवन्धरकुमार सोचते हैं-
"मनुष्य पैदा हुए, पुष्ट हुए, फिर नष्ट हो गए। यह संसारी प्राणियों की परिपाटी है। इसलिए हे आत्मन ! तू अपने ध्रुव आत्मा का आलम्बन ले, जिससे पुन: पुन: जन्म-मरण न करना पड़े। ____ पानी के बुलबुलेवत यह मनुष्य जीवन क्षणमात्र भी स्थिर नहीं है और प्राणियों की इच्छाएँ करोड़ों से भी अधिक हैं। ऐसी स्थिति में एक तो उनकी पूर्ति सम्भव नहीं है। कदाचित् पुण्योदय से थोड़ी बहुत पूर्ति हो भी जाए तो प्राप्त वस्तुएँ और वे इच्छाएँ भी स्थिर नहीं हैं, प्रतिक्षण पुण्य क्षीण होता है। फलत: वस्तुएँ भी नष्ट होती हैं, पुन: पुन: नई-नई इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं, जिनकी पूर्ति असम्भव है। अत: तत्त्वज्ञान के अवलम्बन से इन विषयों की इच्छाओं का त्यागकर इन पर विजय प्राप्त करना एवं ध्रुवधाम आत्मतत्त्व का अवलम्बन लेना ही श्रेयस्कर है।" अशरणभावना के माध्यम से वस्तुस्थिति का विचार करते हैं कि -
"हे आत्मन् ! मन्त्र और तन्त्र भी तेरे पुण्य बिना सम्यक् शरणभूत नहीं हो सकते । यदि पुण्य बिना ही ये शरणभूत होते तो कोई मरता ही क्यों ? मन्त्र-तन्त्र-वादियों की दुनिया में कहाँ कमी है; एक ढूँढो हजार मिलते हैं; पर पुण्य बिना सब निरर्थक सिद्ध होते हैं।
जब मृत्यु का समय आ जाता है, तब कोई भी बचा नहीं रह सकता। अत: वस्तुत: तेरा आत्मा ही तेरे लिए शरणभूत है, उसी की शरण में जा।
संसारभावना से संसार की असारता का विचार करते हैं कि - हे आत्मन! तू अपने कर्म से अनेक वेष धारण करके नट के समान पाप से तिर्यंचगति एवं नरकगति में, पुण्य से देवगति में और पुण्य-पाप दोनों से मनुष्यगति में घूम रहा है।
हे आत्मन ! तू जिन सांसारिक भोगों को अनेक बार भोगकर भी तृप्त नहीं हुआ और जिसे जूठन की भाँति छोड़ चुका है, उसी जूठन को पुन:
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१. ग्यारहवाँ लम्ब : श्लोक २९, ३६, ४३