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अहिंसा : महावीर की दृष्टि में राग के अतिरिक्त द्वेषादि के कारण भी जो हिंसा होती देखी जाती है, उसके भी मूल में जाकर देखें तो उसका कारण भी राग ही दृष्टिगोचर होगा।
हम इस बात पर गहराई से विचार करें कि जिस द्वेष के कारण यह द्रव्यहिंसा हुई है, वह द्वेष किस कारण से उत्पन्न हुआ था; तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि जिस व्यक्ति से हमें राग था, उसके प्रति असद्व्यवहार के कारण अथवा जिस वस्तु से हमें अनुराग था, उस वस्तु की प्राप्ति में बाधक होने के कारण ही वह द्वेष उत्पन्न हुआ था।
यदि कोई व्यक्ति हमारे परोपकारी गुरु की निन्दा करता है या हम पर सर्वस्व लुटानेवाले माँ-बाप से असद्व्यवहार करता है तो उस व्यक्ति से हमें सहज ही द्वेषभाव हो जाता है। यदि उस व्यक्ति के प्रति हम से कोई हिंसात्मक व्यवहार होता है तो उसे हम द्वेषमलक हिंसा कहेंगे: पर गहराई में जाकर विचार करें तो स्पष्ट ही प्रतीत होगा कि हमारे इस हिंसात्मक व्यवहार के पीछे वह राग ही कार्य कर रहा है, जो हमारे हृदय में हमारे गुरु या माता-पिता के प्रति विद्यमान है। __इस तरह गहराई में जाकर विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि द्वेषमूलक हिंसा भी मूलतः रागमूलक ही है।
यद्यपि 'राग' शब्द बहुत व्यापक है, उसमें आत्मा में उत्पन्न होने वाले सभी विकारीभाव समाहित हो जाते हैं। मिथ्यात्व सहित सम्पूर्ण मोह को, जिसमें द्वेष भी सम्मिलित है, राग कहा जाता है; तथापि यहाँ 'राग' शब्द के साथ 'आदि' शब्द का प्रयोग करके द्वेषादि विकारों का पृथक् रूप से भी संकेत कर दिया है। ___यदि कोई कहे कि 'रागादि' के स्थान पर 'द्वेषादि' शब्द का प्रयोग किया जाता तो कोई विवाद नहीं रहता; क्योंकि द्वेष को तो हिंसा का कारण सभी मानते हैं। ऐसी स्थिति में राग ‘आदि' शब्द में समाहित हो ही जाता। इसतरह हम अपनी बात भी रख देते और दुनिया को वह खटकती भी नहीं।
अरे भाई ! यदि 'राग' शब्द का उल्लेख स्पष्ट रूप से न होता तो राग में धर्म माननेवाले लोग उसे हिंसा स्वीकार ही न करते; अतः बात अस्पष्ट
अहिंसा : महावीर की दृष्टि में ही रह जाती। यही कारण है कि यहाँ 'राग' शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया गया है और द्वेषादि को 'आदि' शब्द में समाहित किया गया है। वक्र और जड़ शिष्य संकेतों की भाषा से नहीं समझते, उनके लिए तो जितनी अधिक स्पष्टता की जाये, उतनी ही कम है। ___ इतनी सावधानी रखने पर भी लोग यह कहते देखे जाते हैं कि राग से तात्पर्य मात्र अशुभराग से है, तीव्रराग से है; शुभराग से, मन्दराग से नहीं। __पर भाई ! इतना तो सोचो कि जब भगवान महावीर ने हिंसा की परिभाषा में 'राग' शब्द का प्रयोग किया होगा, क्या तब उन्हें उसके व्यापक अर्थ का ध्यान न रहा होगा? क्या वे यह नहीं जानते होंगे कि राग दो प्रकार का होता है - शुभ और अशुभ अथवा मंद और तीव्र?
इस पर कुछ लोग कहते हैं कि विषय कषाय का राग हिंसा है - यह तो ठीक है, पर धर्मानुराग को हिंसा कैसे कहा जा सकता है?
भाई ! राग तो राग है, वह किसके प्रति है - इससे उसके रागपने में क्या अन्तर पड़ता है? जिस धर्मानुराग को तुम हिंसा की परिधि से बाहर रखना चाहते हो, उसी धर्मानुराग ने विश्व में कितनी खून की नदियाँ बहाई हैं - क्या इसकी जानकारी नहीं है आपको? ___ इतिहास के पन्ने पलटकर तो देखो, धर्मानुराग के नाम पर ही लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया। हमारी आँखों के सामने होनेवाले हिन्दू-मुसलमानों के दंगे, सिया-सुन्नियों के दंगे धर्मानुराग के ही परिणाम हैं। दूर क्यों जाते हो, दिगम्बर-श्वेताम्बरों के झगड़ों के पीछे भी तो यही धर्मानुराग कार्य करता है।
भाई ! अविवेक का भी कोई ठिकाना है? हम अहिंसा धर्म की भी रक्षा जान की बाजी लगाकर करना चाहते हैं। जान की बाजी लगाने से अहिंसा धर्म की रक्षा नहीं होती है, हिंसा उत्पन्न होती है। आज हम इस स्थूल सत्य को भी भूले जा रहे हैं।
भाई ! धर्मानुराग धर्म का प्रकार नहीं, राग का प्रकार है; अतः धर्म नहीं, राग ही है; धर्म तो एक वीतरागभाव ही है।