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आध्यात्मिक भजन संग्रह तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे । लहत न मित मैं पतित कहों किम, किन शशकन गिरिराज उखेरे।।४।। तुम बिन राग दोष दर्पनज्यों, निज निज भाव फलैं तिनकेरे। तुम हो सहज जगत उपकारी, शिवपथ-सारथवाह भलेरे ।।५।। तुम दयाल बेहाल बहुत हम, काल-कराल व्याल-चिर-घेरे। भाल नाय गुणमाल जपों तुम, हे दयाल, दुखटाल सबेरे ।।६।। तुम बहु पतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भव संकट मेरे ।
भ्रम-उपाधि हर शम समाधिकर, 'दौल' भये तुमरे अब चेरे।।७।। ४७. पद्मसद्म पद्मापद पद्मा पद्मसद्म पद्मापद पद्मा, मुक्तिसद्म दरशावन है। कलि-मल-गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन है ।। जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग रमावन है। जास जन्मदिनपूरब षटनव, मास रतन बरसावन है।।१।। जा तपथान पपोसागिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर थावन है। केवलजोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर-नशावन है ।।२।। जाको शासन पंचाननसो, कुमति मतंग नशावन है। राग बिना सेवक जन तारक, पै तसु रुषतुष भाव न है ।।३।। जाकी महिमा के वरननसों, सुरगुरु बुद्धि थकावन है। 'दौल' अल्पमति को कहबो जिमि, शशक गिरिंद धकावन है।।४।। ४८. चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के
चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के, चरन चतुर-चित ध्यावतु हैं। कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतु हैं ।।टेक।। हाहा-हूहू-नारद-तुंबर, जासु अमल जस गावतु हैं। पद्मा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु हैं।।१।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन बिन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतु हैं। जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतु हैं।।२।। जाकी चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूर छिपावतु हैं। आतमजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु हैं ।।३।। नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि-उडु-चित्त रमावतु हैं। जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका-लोक माहिं न समावतु हैं ।।४।। साम्यसिंधु-वर्द्धन जगनंदन, को शिर हरिगन नावतु हैं। संशय विभ्रम मोह 'दौल' के, हर जो जगभरमावतु हैं ।।५।। ४९. भारतूं हित तेरा, सुनि हो मन मेरा भाखू हित तेरा, सुनि हो मन मेरा ।।टेक. ।। नरनरकादिक चारौं गति में, भटक्यो तू अधिकानी । परपरणति में प्रीति करी, निज परनति नाहिं पिछानी ।
सहै दुख क्यों न घनेरा ।।१।।भाv.।। कुगुरु कुदेव कुपंथ पंकफंसि, तैं बहु खेद लहायो । शिवसुख दैन जैन जगदीपक, सो तैं कबहुँ न पायो ।
मिट्यो न अज्ञान अंधेरा ।।२।।भाखू.।। दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सौ विधिठगन ठगी है। पाँचों इंद्रिन के विषयन में, तेरी बुद्धि लगी है।
भया इनका तू चेरा ।।३।।भाखू.।। तू जगजाल विषै बहु उरझ्यो, अब कर ले सुरझेरा । 'दौलत' नेमिचरन पंकज का, हो तू भ्रमर सबेरा ।
नशै ज्यों दुख भवकेरा ।।४ ।।भाखू.।। ५०. आतम रूप अनूपम अद्भुत
आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखें भव सिंधु तरो।।टेक ।। अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो। केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौ लोकशिरो ।।१।।
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