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________________ १०६ आध्यात्मिक भजन संग्रह ४२. देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है! देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपरि कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है। टेक ।। जगत-विभूति भूतिसम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभित श्वासा, आशा वासा, नासादृष्टि सुहाया है ।।१।। कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है।।२।। शुध उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है।।३।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, तृन-मनिको सम भाया है। सुर नर नाग नमहिं पद जाकै, 'दौल' तास जस गाया है।।४।। ४३. जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा ।।टेक. ।। मातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे । वंश तो इक्ष्वाक, जैसे नभवीच चंदा।।१।।जय श्री. ।। कनक वरन तन, मोहत भविक जन । रवि शशि कोटि लाजै, लाजै मकरन्दा।।२।।जय श्री. ।। दोष तौ अठारा नासे, गुन छियालीस भासे । अष्ट-कर्म काट स्वामी, भये निरफंदा।।३।।जय श्री. ।। चार ज्ञानधारी गनी, पार नाहिं पावै मुनी। 'दौलत' नमत सुख चाहत अमंदा।।४ ।।जय श्री. ।। ४४. भज ऋषिपति ऋषभेश भज ऋषिपति ऋषभेश, ताहि नित नमत अमर असुरा। मनमथ मथ दरसावन शिवपथ, वृषरथचक्रघुरा । ।भज. ।। जा प्रभुगर्भ छमासपूर्व सुर, करी सुवर्णधरा । जन्मत सुरगिरधर सुरगणयुत, हरि पय-न्हवन करा।।१।।भज. ।। पण्डित दौलतरामजी कृत भजन नटत नृत्यकी विलय देख प्रभु, लहि विराग सु थिरा । तब हि देवऋषि आय नाय शिर, जिनपदपुष्प धरा।।२।।भज. ।। केवल समय जास वच रविने, जगभ्रमतिमिरहरा। सुदृगबोधचारित्र पोतलहि, भवि भवसिंधुतरा।।३ ।।भज. ।। योगसंहार निवार शेषविधि, निवसे वसुम धरा । 'दौलत' जे जाको जस गावे, ते द्वै अज अमरा।।४ ।।भज. ।। ४५. मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मोहि कीजै शिवपथगाम ।।टेक. ।। मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम । मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुँगति विदित ठाम।।१।।मेरी. ।। विषयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान-संपति ललाम । अथवा यह जड़ को न दोष मम, दुखसुखता, परनति सुकाम।।२।।मेरी. ।। भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुनग्राम। परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम।।३।।मेरी. ।। निर्विकार संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटिकाम। भव्यनिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम।।४ ।।मेरी. ।। तुम गुनमहिमा कथन करनको, गिनत गनी निजबुद्धि खाम। 'दोलतनी' अज्ञान परनती, हे जगत्राता कर विराम।।५।।मेरी. ।। ४६. जगदानंदन जिन अभिनंदन जगदानंदन जिन अभिनंदन, पदअरविंद नमूं मैं तेरे ।।टेक ।। अरुणवरन अघताप हरन वर, वितरन कुशल सु शरन बडेरे। पद्मासदन मदन-मद-भंजन, रंजन मुनिजन मन अलिकेरे।।१।। ये गुन सुन मैं शरनै आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर पिछानन, तुम विन आन न कारन हेरे।।२।। तुम पदशरण गही जिनतें ते, जामन-जरा-मरन-निरवेरे । Harian तुम” विमुख भये शठ तिनको, चहुँ गति विपत महाविधि पेरे।।३।। sarak kata Data
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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