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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
पण्डित दौलतरामजी
कृत भजन
१. अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन
अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जगमें । देव अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें ।।१।।अरिरज. ।। जो तन अष्टोत्तरसहसा लक्खन लखि कलिल शमें। जो वच दीपशिखा मुनि विचरें शिवमारगमें ।।२।।अरिरज. ।। जास पासतें शोकहरन गुन, प्रगट भयो नगमें । व्यालमराल कुरंगसिंघको, जातिविरोध गमें ।।३ ।।अरिरज. ।। जा जस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनी खगमें । 'दौल' नाम तसु सुरतरु है या, भव मरुथल मगमें ।।३।।अरिरज. ।। २. हे जिन तेरो सुजस उजागर हे जिन तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी ।।टेक. ।। दुर्जय मोह महाभट जाने, निजवश कीने जगप्रानी। सो तुम ध्यानकृपान पानिगहि, ततछिन ताकी थिति भानी।।१।। सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी। है सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी ।।२।। मंगलमय तू जगमें उत्तम, तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधि, जन्मजरामृतगदहानी ।।३।। तुमरे पंच कल्यानकमाहीं, त्रिभुवन मोददशा ठानी। विष्णु विदम्बर, जिष्णु, दिगम्बर, बुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी।।४।। सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुबोध में नहिं छानी। ताते 'दौल' दास उर आशा, प्रगट करो निजरससानी ।।५।।
३. हे जिन तेरे मैं शरणै आया हे जिन तेरे मैं शरणै आया। तुम हो परमदयाल जगतगुरु, मैं भव भव दुःख पाया ।।हे जिन. ।। मोह महा दुठ घेर रह्यौ मोहि, भवकानन भटकाया। नित निज ज्ञानचरननिधि विसर्यो, तन धनकर अपनाया।।१।।हे जिन. ।। निजानंदअनुभवपियूष तज, विषय हलाहल खाया। मेरी भूल मूल दुखदाई, निमित मोहविधि थाया।।२।।हे जिन. ।। सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया। शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुयश मुनीगन गाया।।३।।हे जिन. ।। तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया। भिन्न होहूँ विधितै सो कीजे, 'दौल' तुम्हें सिर नाया।।४।।हे. जिन.।। ४. मैं आयौ, जिन शरन तिहारी
मैं आयौ, जिन शरन तिहारी। मैं चिरदुखी विभावभावतें, स्वाभाविक निधि आप विसारी ।।मैं ।। रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन होत भवि शिव मगचारी। यौं मम कारज के कारन तुम, तुमरी सेव एक उर धारी ॥१॥ मिल्यौ अनन्त जन्मतै अवसर, अब विनऊँ हे भवसर तारी।
परम इष्ट अनिष्ट कल्पना, 'दौल' कहै झट मेट हमारी ।।२।। ५. जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे जाऊँकहाँ तज शरन तिहारे।।टेक।। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे।।१।। डूबत हों भवसागरमें अब, तुम बिन को मुह वार निकारे।।२।। तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातै हम यह हाथ पसारे ।।३।। मो-सम अधम अनेक उधारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे।।४।। 'दौलत' को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ।।५।।