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________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन 909. निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविषय सत्य कोट खाई करुनामय, वाग विराग छिमा भुवि भर।।निज. ।।१।। जीव भूप तन नगर बसै है, तहँ कुतवाल धरमको कर।।निज.।।२।। 'द्यानत' जब भंडार न जावै, तब सुख पावै साहु अमर।।निज.।।३।। १०२. परमाथ पंथ सदा पकरौ ........ कै अरचा परमेश्वरजीकी, कै चरचा गुन चित्त धरौ।।परमारथ. ।।१।। जप तप संजम दान छिमा करि, परधन परतिय देख डरौ।।परमारथ.।।२।। 'द्यानत' ज्ञान यही है चोखा, ध्यानसुधामृत पान करौ।।परमारथ.।।३।। १०३. प्राणी लाल! छांडो मन चपलाई ...... देखो तन्दुलमच्छ जु मन , लहै नरक दुखदाई ।।प्राणी. ।। धारै मौन दया जिनपूजा, काया बहुत तपाई। मनको शल्य गयो नहिं जब लों, करनी सकल गँवाई।।प्राणी. ।।१।। बाहूबलि मुनि ज्ञान न उपज्यो, मनकी खुटक न जाई। सुनतें मान तज्यो मनको तब, केवलजोति जगाई ।।प्राणी. ।।२।। प्रसनचंद रिषि नरक जु जाते, मन फेरत शिव पाई। तन” वचन वचन" मनको, पाप कह्यो अधिकाई ।।प्राणी. ।।३।। देंहिं दान गहि शील फिरें बन, परनिन्दा न सुहाई। वेद प. निरग्रंथ रहैं जिय, ध्यान बिना न बड़ाई ।।प्राणी. ।।४।। त्याग फरस रस गंध वरण सुर, मन इनसों लौ लाई। घर ही कोस पचास भ्रमत ज्यों, तेलीको वृष भाई ।।प्राणी. ।।५।। मन कारण है सब कारजको, विकलप बंध बढ़ाई। निरविकलप मन मोक्ष करत है, सूधी बात बताई।।प्राणी. ।।६।। 'द्यानत' जे निज मन वश करि हैं, तिनको शिवसुख थाई। बार बार कहुँ चेत सवेरो, फिर पाछै पछताई ।।प्राणी. ।।७।। १०४. प्राणी लाल! धरम अगाऊ धारौ जबलौं धन जोवन हैं तेरे, दान शील न बिसारौ ।।प्राणी. ।। जबलौं कर पद दिढ़ हैं तेरे, पूजा तीरथ सारौ। जीभ नैन जबलौं हैं नीके, प्रभु गुन गाय निहारौ ।।प्राणी. ।।१।। आसन श्रवन सबल हैं तोलौं, ध्यान शब्द सुनि धारौ। जरा न आवै गद न सतावै, संजम पर उपकारौ ।।प्राणी. ।।२।। देह शिथिल मति विकल न तौलौं, तप गहि तत्त्व विचारौ। अन्तसमाधि-पोत चढ़ि अपनो, 'द्यानत' आतम तारौ।।प्राणी. ।।६।। १०५. भाई! कहा देख गरवाना रे...... गहि अनन्त भव तैं दुख पायो, सो नहिं जात बखाना रे।।भाई. ।। माता रुधिर पिताके वीरज, ता” तू उपजाना रे । गरभ वास नवमास सहे दुख, तल सिर पाँव उचाना रे।।भाई.।।१।। मात अहार चिगल मुख निगल्यो, सो तू असन गहाना रे। जंती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम सहाना रे ।।भाई. ।।२।। आठ पहर तन मलि मलि धोयो, पोष्यो रैन बिहाना रे। सो शरीर तेरे संग चल्यो नहिं, छिनमें खाक समाना रे।।भाई. ।।३।। जनमत नारी, बाढ़त भोजन, समरथ दरब नसाना रे। सो सुत तू अपनो कर जाने, अन्त जलावै प्राना रे।।भाई. ।।४।। देखत चित्त मिलाप हरै धन, मैथुन प्राण पलाना रे। सो नारी तेरी है कैसे, मूवें प्रेत प्रमाना रे ।।भाई. ।।५।। पाँच चोर तेरे अन्दर पैठे, ते ठाना मित्राना रे । खाय पीय धन ज्ञान लूटके, दोष तेरे सिर ठाना रे ।।भाई. ।।६।। देव धरम गुरु रतन अमोलक, कर अन्तर सरधाना रे। 'द्यानत' ब्रह्मज्ञान अनुभव करि, जो चाहै कल्याना रे।।भाई. ।।७।। sarak kata Data
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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