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आध्यात्मिक भजन संग्रह
मेरो देह काम उनहार, सो तन भयो छिनक में छार ।।झूठा. ।।४ ।। जननी तात भ्रात सुत नार, स्वारथ बिना करत हैं ख्वार ।।झूठा. ।।५।। भाई शत्रु होंहिं अनिवार, शत्रु भये भाई बहु प्यार ।।झूठा. ।।६।। 'द्यानत' सुमरन भजन अधार, आग लगैं कछु लेहु निकार ।।झूठा.।।७।। ९५. त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम ......
त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम, तोह दुख दाता तिहूँ, लोक तिहूँ काल ।।त्यागो. ।। चेतन अमलरूप, तीन लोक ताको भूप, सो तो डार्यो भवकूप, दे नहिं निकाल ।।त्यागो. ।।१।। एकसौ चालीस आठ, प्रकृतिमें यह गाँठ, जाके त्या पावै शिव, गहैं भव जाल ।।त्यागो. ।।२।। 'द्यानत' यही जतन, सुनो तुम भविजन,
भजो जिनराज तातें, भाज जै है हाल ।।त्यागो. ।।३।। ९६. तू तो समझ समझ रे! ...... निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई।।तू तो. ।। कर मनका लै आसन माझ्यो, वाहिज लोक रिझाई। कहा भयो बक-ध्यान धरेतें, जो मन थिर न रहाई।।तू तो.।।१।। मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई। क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई।।तू तो. ।।२।। मन वच काय जोग थिर करकैं, त्यागो विषयकषाई। 'द्यानत' सुरग मोख सुखदाई, सद्गुरु सीख बताई।।तू तो. ।।३।। ९७. तेरो संजम बिन रे, नरभव निरफल जाय ...... बरष मास दिन पहर महूरत, कीजे मन वच काय।।तेरो. ।।१।। सुरग नरक पशु गतिमें नाहीं, कर आलस छिटकाय।।तेरो.।।२।। 'द्यानत' जा बिन कबहुँ न सीझैं, राजबिर्षे जिनराय।।तेरो.।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ९७. दिौं दान महा सुख पावै ......
कूप नीर सम घर धन जानौं, क. ब. अकरें सड़ जावै।।१।। मिथ्याती पशु दानभावफल, भोग-भूमि सुरवास बसावै।।२।।
'द्यानत' गास अरध चौथाई, मन-वांछित विधि कब बनि आवै।।३।। ९८. दुरगति गमन निवारिये, घर आव सयाने नाह हो ......
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, सहित विविध दुखदाह हो।।१।। निकसि निगोद पहुँचवो शिवपुर, बीच बसैं क्या लाह हो।।२।। 'द्यानत' रतनत्रय मारग चल, जिहिं मग चलत हैं साह हो।।३।। ९९. धिक! धिक! जीवन समकित बिना ...... दान शील तप व्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ।।धिक.।। ज्यों बिनु कन्त कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर ज्यों सुना। जैसे बिना एकड़े बिन्दी, त्यों समकित बिन सरब गुना । |धिक. ।।१।। जैसे भूप बिना सब सेना, नीव बिना मन्दिर चुनना। जैसे चन्द बिहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना । ।धिक. ।।२।। देव जिनेन्द्र, साधु गुरू, करुना, धर्मराग व्योहार भना। निहचै देव धरम गुरु आतम, ‘द्यानत' गहि मन वचन तना।।धिक. ।।३।। १००. नहिं ऐसो जनम बारंबार ......
कठिन कठिन लह्यो मनुष भव, विषय भजि मति हार । निहिं. ।। पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधिमझार। अंध हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार ।।नहिं. ।।१।। कबहुँ नरक तिरयंच कबहूँ, कबहूँ सुरगबिहार। जगतमहिं चिरकाल भ्रमियो, दुर्लभ नर अवतार ।।नहिं. ।।२।। पाय अमृत पाँय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो विषय कषाय 'द्यानत', ज्यों लहो भवपार ।।नहिं. ।।३।।