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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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७०. ए मान ये मन कीजिये भज प्रभु तज सब बात हो........ मुख दरसत सुख बरसत प्रानी, विघन विमुख है जात हो । ए मन. ।। १ ।। सार निहार यही शुभ गतिमें, छह मत मानै ख्यात हो । ए मन. ।। २ ।। 'द्यानत' जानत स्वामि नाम धन, जस गावैं उठि प्रात हो । । ए मन. ।। ३ ।। ७१. चौबीसौं को वंदना हमारी
भवदुखनाशक, सुखपरकाशक, विघनविनाशक मंगलकारी ॥ १ ॥ ती लोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ।। २ ।। पंच कल्यानक महिमा लखकै, अद्भुत हरष लहैं नरनारी ॥ ३ ॥ 'द्यानत' इनकी कौन चलावै, बिंब देख भये सम्यकधारी ॥ ४ ॥ ७२. जिन के भजन में मगन रहु रे ! जो छिन खोवै बातनिमांहिं, सो छिन भजन करें अघ जाहिं । । १ ।। भजन भला कहतैं क्या होय, जाप जपैं सुख पावै सोय ।। २ ।। बुद्धि न चहिये तन दुख नाहिं, द्रव्य न लागै भजनकेमाहिं ।। ३ ।। षट दरसनमें नाम प्रधान, 'द्यानत' जपैं बड़े धनमान ॥ ४ ॥ ७३. जिन जपि जिन जपि, जिन जपि जीयरा
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प्रीति करि आवै सुख, भीति करि जावै दुख, नित ध्यावै सनमुख, ईति न आवे नीयरा ॥ जिन. ।। १ । मंगल प्रवाह होय, विघनका दाह धोय,
जस जागै तिहुँ लोय, शांत होय हीयरा ।। जिन. ।। २ ।। 'द्यानत' कहाँ लौं कहै, इन्द्र चन्द्र सेवा बहै, भव दुख पावकको, भक्ति नीर सीयरा ।। जिन ॥३ ॥
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७४. जिन नाम सुमर मन! बावरे ! कहा इत उत भटकै ........
विषय प्रगट विष- बेल हैं, इनमें जिन अटकै। जिन नाम. ।। दुर्लभ नरभव पायकै, नगसों मत पटकै ।
फिर पीछे पछतायगो, औसर जब सटकै । जिन नाम. ।। १ ।।
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Antanji Jain Bhajan Book pra
(१९)
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
एक घरी है सफल जो, प्रभु-गुन-रस गटकै ।
कोटि वरष जीयो वृथा, जो थोथा फटकै । । जिन नाम. ।। २ ।। 'द्यानत' उत्तम भजन है, लीजै मन रटकै ।
भव भवके पातक सबै, जै हैं तो कटकै । । जिन नाम ।। ३ ।। ७५. जिनरायके पाय सदा शरनं
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भव जल पतित निकारन कारन, अन्तरपापतिमिर हरनं । । जिन ।। १ ।। परसी भूमि भई तीरथ सो, देव- मुकुट -मनि- छवि धरनं । । जिन. ।। २ ।। 'द्यानत' प्रभु-पद-रज कब पावै, लागत भागत है मरनं । । जिन ।। ३ ।। ७६. जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय रोम रोम लखि हरष होत है, आनँद उर न समाय ॥ । जिन ।। १ । शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय । । जिन. ।। २ ।। इंद फनिंद नरिंद विभौ सब, दीसत है दुखदाय । । जिन. ।। ३ ।। 'द्यानत' पूजै ध्यावै गावै, मन वच काय लगाय । । जिन ।। ४ ।। ७७. तू ही मेरा साहिब सच्चा सांई काल अनन्त रुल्यो जगमाहीं, आपद बहुविधि पाईं। । तू ही. ।। १ ।। तुम राजा हम परजा तेरे, कीजिये न्याव न काईं । । तू ही . ।। २ ।। 'द्यानत' तेरा करमनि घेरा, लेहु छुड़ाय गुसाईं । । तू ही. ।। ३ ।। ७८. तेरी भगति बिना धिक है जीवना जैसे बेगारी दरजीको, पर घर कपड़ोंका सीवना । । तेरी ।। १ ।। मुकुट बिना अम्बर सब पहिरे, जैसे भोजनमें घीव ना । । तेरी ।। २ ।। 'द्यानत' 'भूप बिना सब सेना, जैसे मंदिरकी नींव ना । । तेरी. । । ३ । । ७९. मानुष जनम सफल भयो आज
सीस सफल भयो ईश नमत ही, श्रवन सफल जिनवचन समाज ।। मानुष. ।। भाल सफल जु दयाल तिलक, नैन सफल देखे जिनराज ।
जीभ सफल जिनवानि गानतें, हाथ सफल करि पूजन आज । मानुष. ।। १ ।।
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