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६६. ज्ञान ज्ञेयमाहिं नाहिं, ज्ञेय हू न ज्ञानमाहिं ज्ञान ज्ञेय आन आन, ज्यों मुकर घट है । । ज्ञान. ।। ज्ञान रहै ज्ञानीमाहिं, ज्ञान बिना ज्ञानी नाहिं, दोऊ एकमेक ऐसे, जैसे श्वेत पट है । । ज्ञान. ।। १ ।। ध्रुव उतपाद नास, परजाय नैन भास, दरवित एक भेद, भावको न ठट है । । ज्ञान. ।। २ ।। 'द्यानत' दरब परजाय विकलप जाय,
आध्यात्मिक भजन संग्रह
तब सुख पाय जब, आप आप रट है । । ज्ञान. ।। ३ ।। ६७. ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै
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राज सम्पदा भोग भोगवै, बंदीखाना धारै । । ज्ञानी ।। धन जोवन परिवार आपतैं, ओछी ओर निहारै ।
दानशील तप भाव आपतैं, ऊंचेमाहिं चितारै । । ज्ञानी ।। १ ।। दुख आये धीरज धर मनमें, सुखवैराग सँभारै ।
आतम दोष देखि नित झूरै, गुन लखि गरब बिडारै । । ज्ञानी ।। २ ।। आप बड़ाई परकी निन्दा, मुखतैं नाहिं उचारै ।
आप दोष परगुन मुख भाषै मनतैं शल्य निवारै । । ज्ञानी ।। ३ ।। परमारथ विधि तीन जोगसौं, हिरदै हरष विथारै ।
और काम न करै जु करै तो, जोग एक दो हारै । । ज्ञानी ।।४ ।। गई वस्तुको सोचै नाहीं, आगमचिन्ता जारै ।
वर्तमान वर्ते विवेकसौं, ममता बुद्धि विसारै । । ज्ञानी ।।५ ।। बालपने विद्या अभ्यासै, जोवन तप विस्तारै । वृद्धपने सन्यास लेयके, आतम काज सँभारै ।।ज्ञानी ।। ६ ।। छहों दरब नव तत्त्वमाहिंतें, चेतन सार निकारै ।
'द्यानत' मगन सदा तिसमाहीं, आप तरै पर तारै । । ज्ञानी ।।७।।
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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
६८. ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै
नारि नपुंसक नर पद काया, आप अकाय निहारै । । ज्ञानी ।। बामन वैश्य शुद्र औ क्षत्री, चारों भग लिँग लागे ।
भग विनाशी भोग विनाशी, हम अविनाशी जागे । । ज्ञानी ॥ १ ॥ पंडित मूरख पोथिनिमाहीं, पोथी नैनन सूझै ।
नैन जोति रवि चन्द उदयतें, तेऊ अस्तत बूझै । । ज्ञानी ।। २ ।। कायर सूर लड़नमें गिनिये, लड़त जीव दुख पावै।
सब हममें हम हैं सबमाहीं, मेरे कौन सतावै । । ज्ञानी ।। ३ ।। कौन बजावे अरु को गावै, नाचै कौन नचावै ।
सुपने सा जग ख्याल मँडा है, मेरे मन यों आवै । । ज्ञानी ।।४ ।। एक कमाऊ एक निखट्ट, दोनों दरब पसारा ।
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आवै सुख जावै दुख पावै, मैं सुख दुखसों न्यारा । ज्ञानी ।। ५ ।। एक कुटुम्बी एक फकीरा, दोनों घर वन चाहैं ।
घर भी काको वन भी काको, ममता-दाहनि दाहैं । ज्ञानी ।। ६ ।। सोवत जागत व्रत अरु खातैं, गर्व निगर्व निहारै । 'द्यानत' ब्रह्म मगन निशि वासर, करम-उपाधि बिडारै ॥ ज्ञानी ।। ७ ।। ६९. अरहंत सुमर मन बावरे .......
ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे ।। अरहंत. ।। नरभव पाय अकारथ खोवै, विषय भोग जु बढ़ाव रे ।
प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आव रे ।। अरहंत. ।। १ ।। जुवती तन धन सुतमित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे।
यह संसार सुपनकी माया, आँख मीचि दिखराव रे ।। अरहंत. ।। २ ।। ध्याव ध्याव रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे।
'द्यानत' बहुत कहाँ लौं कहिये, फेर न कछू उपाव रे ।। अरहंत. ।। ३ ।।