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________________ २१६ विभिन्न कवियों के भजन आध्यात्मिक भजन संग्रह जो करना है सो अब करलो, बुरे कामों से अब डरलो। कहे 'मुलतान' सुन भाई, भरोसा है न इक पल का ।।४।। ९५. चार गति में भ्रमते भ्रमते .... चार गति में भ्रमते भ्रमते, नहीं मिला सुख इक क्षण भाई। जिनवाणी ही परम सहाई, देवे मोक्षमार्ग दरशाई........।।टेक।। लख चौरासी भ्रमते-रूलते, काल अनन्ते खोये भाई। परद्रव्यो से प्रीति लगाई, पर ना हुआ जिन कभी हे भाई ।।१।। महाभाग्य इस दुःखकाल में, जिनवाणी की शरणा पाई। जिनवाणी के ज्ञान बिना तो, नहीं मिला निजरूप दिखाई ।।२।। सत्य ज्ञान श्रद्धान बिना तो, जीवन दुखमय रहा ही भाई। जिनवाणी का वचन यथारथ, अब तो श्रद्धा में लो भाई ।।३।। ज्ञान यथारथ निज-पर करके, जीवन में पाओ सुख भाई।। आतम रूप माहिं ही जम लो, आतम रूप सदा सुख दाई ।।४ ।। ९६. चेतो हे! चेतन राज.... चेतो हे! चेतन राज, चेतन बोले है। जानो अब निज पर काज, वीरा बोले है।। अपने समान सब जीव, दिव्यध्वनि बोले है। नहिं रंच मात्र भी भेद, जिनवर बोले है।।१।। ऊपर से भेद ही जान, गणधर बोले है। आतम सब निज पहचान, गुरूवर बोले है।।२।। जिनवाणी सच्चा ज्ञान, अमृत घोले है। लख चौरासी दुख हान, प्रभुवर बोले है।।३।। अब कर लो भेद-विज्ञान, हम सब डोले है। भव भ्रमण का हो हान, निज-रस जो ले है।।४।। सिद्धातम पद ही सार, जिनागम बोले है। निज आतम ही इक सार, वीर प्रभु बोले है।।५।। ९७. माँ जिनवाणी बसो हृदय में ..... माँ जिनवाणी बसो हृदय में, दुख का हो निस्तारा । नित्यबोधनी जिनवर वाणी, वन्दन हो शतवारा ।।टेक ।। वीतरागता गर्भित जिसमें, ऐसी प्रभु की वाणी। जीवन में इसको अपनाएँ, बन जाए सम्यक् ज्ञानी । जनम-जनम तक ना भूलूँगा, यह उपकार तुम्हारा ।।१।। युग युग से ही महादुखी है, जग के सारे प्राणी। मोहरूप मदिरा को पीकर, बने हुए अज्ञानी । ऐसी राह बता दो माता, मिटे मोह अंधियारा ।।२।। द्रव्य और गुणपर्यायों का, ज्ञान आपसे होता। चिदानन्द चैतन्यशक्ति का, भान आपसे होता। मैं अपने में ही रम जाऊँ, यही हो लक्ष्य हमारा ।।३।। भटक भटक कर हार गए अब, तेरी शरण में आए। अनेकांत वाणी को सुनकर, निज स्वरूप को ध्याएँ। जय जय जय माँ सरस्वती, शत शत नमन हमारा।।४ ।। ९८. जिनवाणी माता-दरशायो तुम ही राह जिनवाणी माता, दरशायो तुम ही राह। भ्रमत अनादिकाल से, मिथ्यातम में माहिं । ज्ञानस्वरूपी मैं ही हूँ दरशायो तुम राह ।।१।। अब ना कभी पर्याय में, मम का भ्रम हो जाय । चेतना में ही मैं रमूं, और कछु नहीं भाय ।।२।। sa kabata POR)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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