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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह मनवांछित फल जिहितें होय, जिहिकी पटतर अवर न कोय ।।कर. ।।४।। तिहूँ लोक तिहुँकाल-मँझार, वरन्यो आतमअनुभव सार ।।कर. ।।५।। देव धरम गुरु अनुभव ज्ञान, मुकति नीव पहिली सोपान । कर. ।।६।।
सो जानैं छिन व्है शिवराय, 'द्यानत' सोगहि मन वच काय ।।कर. ।।७।। १७. कारज एक ब्रह्महीसेती .........
अंग संग नहिं बहिरभूत सब, धन दारा सामग्री तेती।।कारज. ।। सोल सुरग नव ग्रैविकमें दुख, सुखित सातमें ततका वेती। जा शिवकारन मुनिगन ध्यावै, सो तेरे घट आनँदखेती ।।कारज. ।।१।। दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान बिन किरिया केती। पंच दरब तोते नित न्यारे, न्यारी रागदोष विधि जेती । कारज. ।।२।। तू अविनाशी जगपरकासी, 'द्यानत' भासी सुकलावेती।
तजौलाल! मनकेविक्लय सब, अनुभव-मगन सुविद्या एती। कारज. ।।३।। १८ घटमें परमातम ध्याइये हो, परम धरम धनहेत
ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत।।घटमें. ।। प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह । काल अनन्त सहे दुखजानें, ताको तजो अब नेह ।।घटमें. ।।१।। ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतै भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ||घटमें. ।।२।। तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, लै करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घाति नसत हैं, उपजत केवलज्ञान ||घटमें. ।।३।। चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त ।
सम्यकदरसनकी यह महिमा, 'द्यानत' लह भव अन्त ।।घटमें. ।।४।। १९. चेतनजी! तुम जोरत हो धन, सो धन चलत नहीं तुम लार .....
जाको आप जान पोषत हो, सो तन जलकै है छार।।चेतन. ।।१।। विषय भोगके सुख मानत हो, ताको फल है दुःख अपार।।चेतन. ।।२।। यह संसार वृक्ष सेमरको, मान कह्यो हौं कहत पुकार।।चेतन. ।।३ ।।
२०. चेतन! तुम चेतो भाई, तीन जगत के नाथ,
ऐसो नरभव पायकैं, काहे विषया लवलाई।।चेतन. ।।१।। नाहीं तुमरी लाइकी, जोवन धन देखत जाई।
कीजे शुभ तप त्यागकै, 'द्यानत' हूजे अकषाई ।।चेतन. ।।२।। २१. चेतन प्राणी चेतिये हो, .......
अहो भवि प्रानी चेतिये हो, छिन छिन छीजत आव।।टेक ।। घड़ी घड़ी घड़ियाल रटत है, कर निज हित अब दाव ।।चेतन. ।। जो छिन विषय भोगमें खोवत, सो छिन भजि जिन नाम। वा नरकादिक दुख पैहै, या सुख अभिराम ।।चेतन. ।।१।। विषय भुजंगमके डसे हो, रुले बहुत संसार। जिन्हें विषय व्यापै नहीं हो, तिनको जीवन सार ।।चेतन. ।।२।। चार गतिनिमें दुर्लभ नर भव, नर बिन मुकति न होय । सो तैं पायो भाग उदय हों, विषयनि-सँग मति खोय ।।चेतन. ।।३।। तन धन लाज कुटुंब के कारन, मूढ़ करत है पाप । इन ठगियों से ठगायकै हो, पावै बहु दुख आप ।।चेतन. ।।४।। जिनको तू अपने कहै हो, सो तो तेरे नाहिं । कै तो तू इनकौं तजै हो, के ये तुझे तज जाहिं ।।चेतन. ।।५।। पलक एककी सुध नहीं हो, सिरपर गाजै काल । तू निचिन्त क्यों बावरे हो, छांडि दे सब भ्रमजाल ।।चेतन. ।।६।। भजि भगवन्त महन्तको हो, जीवन-प्राणअधार ।
जो सुख चाहै आपको हो, 'द्यानत' कहै पुकार ।।चेतन. ।।७।। २२. चेतन! मान ले बात हमारी ..... पुद्गल जीव जीव पुद्गल नहिं, दोनों की विधि न्यारी।।चेतन.॥१॥
चहुँगतिरूप विभाव दशा है, मोखमाहिं अविकारी।।चेतन. ।।२।। mian ___ 'द्यानत' दरवित सिद्ध विराजै, 'सोह' जपि सुखकारी।।चेतन. ।।३।।
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