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________________ १६९ १६८ अध्यात्मनवनीत ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपण सही। एवं प्रतिष्ठापना संयमशोधमय समिती कही ।।३७।। सब भव्यजन संबोधने जिननाथ ने जिनमार्ग में। जैसा बताया आतमा हे भव्य ! तुम जानो उसे ।।३८।। जीव और अजीव का जो भेद जाने ज्ञानि वह । रागादि से हो रहित शिवमग यही है जिनमार्ग में ।।३९ ।। तू जान श्रद्धाभाव से उन चरण-दर्शन-ज्ञान को। अतिशीघ्र पाते मुक्ति योगी अरे जिनको जानकर ।।४०।। ज्ञानजल में नहा निर्मल शुद्ध परिणति युक्त हो। त्रैलोक्यचूड़ामणि बने एवं शिवालय वास हो।।४१।। ज्ञानगुण से हीन इच्छितलाभ को ना प्राप्त हों। यह जान जानो ज्ञान को गुणदोष को पहिचानने ।।४२।। पर को न चाहें ज्ञानिजन चारित्र में आरूढ़ हो। अनूपम सुख शीघ्र पावें जान लो परमार्थ से ।।४३।। इसतरह संक्षेप में सम्यक्चरण संयमचरण । का कथन कर जिनदेव ने उपकृत किये हैं भव्यजन ।।४४।। स्फुट रचित यह चरित पाहुड़ पढ़ो पावन भाव से। तुम चतुर्गति को पारकर अपुनर्भव हो जाओगे ।।४५।। -. बोधपाहड़ शास्त्रज्ञ हैं सम्यक्त्व संयम शुद्धतप संयुक्त हैं। कर नमन उन आचार्य को जो कषायों से रहित हैं।।१।। अर सकलजन संबोधने जिनदेव ने जिनमार्ग में। छहकाय सुखकर जो कहा वह मैं कहूँ संक्षेप में ।।२।। ये आयतन अर चैत्यगृह अर शुद्ध जिनप्रतिमा कही। दर्शन तथा जिनबिम्ब जिनमुद्रा विरागी ज्ञान ही ।।३।। अष्टपाहुड़: बोधपाहुड़ पद्यानुवाद हैं देव तीरथ और अर्हन् गुणविशुद्धा प्रव्रज्या। अरिहंत ने जैसे कहे वैसे कहूँ मैं यथाक्रम ।।४।। आधीन जिनके मन-वचन-तन इन्द्रियों के विषय सब। कहे हैं जिनमार्ग में वे संयमी ऋषि आयतन ।।५।। हो गये हैं नष्ट जिनके मोह राग-द्वेष मद। जिनवर कहें वे महाव्रतधारी ऋषि ही आयतन ।।६।। जो शुक्लध्यानी और केवलज्ञान से संयुक्त हैं। अर जिन्हें आतम सिद्ध है वे मुनिवृषभ सिद्धायतन ।।७।। जानते मैं ज्ञानमय परजीव भी चैतन्यमय । सद्ज्ञानमय वे महाव्रतधारी मुनी ही चैत्यगृह ।।८।। मुक्ति-बंधन और सुख-दुःख जानते जो चैत्य वे। बस इसलिए षट्काय हितकर मुनी ही हैं चैत्यगृह ।।९।। सद्ज्ञानदर्शनचरण से निर्मल तथा निर्ग्रन्थ मुनि । की देह ही जिनमार्ग में प्रतिमा कही जिनदेव ने ।।१०।। जो देखे जाने रमे निज में ज्ञानदर्शन चरण से। उन ऋषीगण की देह प्रतिमा वंदना के योग्य है।।११।। अनंतदर्शन-ज्ञान-सुख अर वीर्य से संयुक्त हैं। हैं सदासुखमय देहबिन कर्माष्टकों से युक्त हैं।।१२।। अनुपम अचल अक्षोभ हैं लोकान में थिर सिद्ध हैं। जिनवर कथित व्युत्सर्ग प्रतिमा तो यही ध्रुव सिद्ध है ।।१३।। सम्यक्त्व संयम धर्ममय शिवमग बतावनहार जो। वे ज्ञानमय निर्ग्रन्थ ही दर्शन कहे जिनमार्ग में ।।१४।। दूध घृतमय लोक में अर पुष्प हैं ज्यों गंधमय । मुनिलिंगमय यह जैनदर्शन त्योंहि सम्यक् ज्ञानमय ।।१५।। जो कर्मक्षय के लिए दीक्षा और शिक्षा दे रहे। वे वीतरागी ज्ञानमय आचार्य ही जिनबिंब हैं।।१६।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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