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________________ अध्यात्मनवनीत विनयवत्सल दयादानरु मार्ग का बहुमान हो । संवेग हो हो उपागूहन स्थितिकरण का भाव हो । । ११ । । अर सहज आर्जव भाव से ये सभी लक्षण प्रगट हों । तो जीव वह निर्मोह मन से करे सम्यक् साधना । । १२ ।। अज्ञानमोहित मार्ग की शंसा करे उत्साह से । श्रद्धा कुदर्शन में रहे तो बमे सम्यक्भाव को ।। १३ ।। सद्ज्ञान सम्यक्भाव की शंसा करे उत्साह से । श्रद्धा सुदर्शन में रहे ना बमे सम्यक्भाव को ।। १४ । । तज मूढ़ता अज्ञान हे जिय ज्ञान दर्शन प्राप्त कर । मद मोह हिंसा त्याग दे जिय अहिंसा को साधकर ।। १५ ।। सब संग तज ग्रह प्रव्रज्या रम सुतप संयमभाव में । निर्मोह हो तू वीतरागी लीन हो शुधध्यान में ।। १६ ।। मोहमोहित मलिन मिथ्यामार्ग में ये भूल जिय । अज्ञान अर मिथ्यात्व कारण बंधनों को प्राप्त हो । । १७ । । सद्ज्ञानदर्शन जानें देखें द्रव्य अर पर्यायों को । सम्यक् करे श्रद्धान अर जिय तजे चरणज दोष को ।। १८ ।। सद्ज्ञानदर्शनचरण होते हैं अमोही जीव को । अर स्वयं की आराधना से हरें बन्धन शीघ्र वे ।। १९ ।। सम्यक्त्व के अनुचरण से दुख क्षय करें सब धीरजन । अर करें वे जिय संख्य और असंख्य गुणमय निर्जरा ।। २० ।। सागार अर अनगार से यह द्विविध है संयमचरण । सागार हों सग्रन्थ अर निर्ग्रन्थ हों अणगार सब ।। २१ ।। देशव्रत सामायिक प्रोषध सचित निशिभुज त्यागमय । ब्रह्मचर्य आरम्भ ग्रन्थ तज अनुमति अर उद्देश्य तज ।। २२ ।। पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत कहे । यह गृहस्थ का संयमचरण इस भांति सब जिनवर कहें ||२३|| १६६ अष्टपाहुड़ : चारित्रपाहुड़ पद्यानुवाद त्रसकायवध अर मृषा चोरी तजे जो स्थूल ही । परनारि का हो त्याग अर परिमाण परिग्रह का करे ।।२४।। दिशि - विदिश का परिमाण दिग्व्रत अर अनर्थकदण्डव्रत । परिमाण भोगोपभोग का ये तीन गुणव्रत जिन कहें ।। २५ ।। सामायिका प्रोषध तथा व्रत अतिथिसंविभाग है । सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे जिनदेव ने ।। २६ ।। इस तरह संयमचरण श्रावक का कहा जो सकल है। अनगार का अब कहूँ संयमचरण जो कि निकल है ।। २७ ।। संवरण पंचेन्द्रियों का अर पंचव्रत पच्चिस क्रिया । त्रय गुप्ति समिति पंच संयमचरण है अनगार का ।। २८ ।। सजीव हो या अजीव हो अमनोज़ हो या मनोज़ हो । ना करे उनमें राग-रुस पंच इन्द्रियाँ, संवर कहा ।। २९ ।। हिंसा असत्य अदत्त अब्रह्मचर्य और परिग्रहा । इनसे विरति सम्पूर्णत: ही पंच मुनिमहाव्रत कहे ॥ ३० ॥ ये महाव्रत निष्पाप हैं अर स्वयं से ही महान हैं । पूर्व में साधे महाजन आज भी हैं साधते । । ३१ । । मनो गुप्ती वचन गुप्ती समिति ईर्या ऐषणा । आदाननिक्षेपण समिति ये हैं अहिंसा भावना ।। ३२ ।। सत्यव्रत की भावनायें क्रोध लोभरु मोह भय । अर हास्य से है रहित होना ज्ञानमय आनन्दमय ।। ३३ ।। हो विमोचितवास शून्यागार हो उपरोध बिन । हो एषणाशुद्धी तथा संवाद हो विसंवाद बिन ।। ३४ । । त्याग हो आहार पौष्टिक आवास महिलावासमय । भोगस्मरण महिलावलोकन त्याग हो विकथा कथन ।। ३५ ।। इन्द्रियों के विषय चाहे मनोज़ हों अमनोज्ञ हों । नहीं करना राग-रुस ये अपरिग्रह व्रत भावना ।। ३६ ।। १६७
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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