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अध्यात्मनवनीत यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।।२३।। अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञानप्रमाण ना। तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए।।२४।। ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह । ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ।।२५।। हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनवरगत कहे । जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ।।२६।। रे आतमा के बिना जग में ज्ञान हो सकता नहीं। है ज्ञान आतम किन्तु आतम ज्ञान भी है अन्य भी ।।२७।। रूप को ज्यों चक्षु जाने परस्पर अप्रविष्ठ रह । त्यों आत्म ज्ञानस्वभाव अन्य पदार्थ उसके ज्ञेय हैं ।।२८।। प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को। त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ।।२९।। ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से । त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ।।३०।। वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत । ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ।।३१।। केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें । चहं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।।३२।। श्रतज्ञान से जो जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा। श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ।।३३।। जिनवरकथित पुद्गल वचन ही सूत्र उसकी ज्ञप्ति ही। है ज्ञान उसको केवली जिनसूत्र की ज्ञप्ति कहें।।३४।। जो जानता सो ज्ञान आतम ज्ञान से ज्ञायक नहीं। स्वयं परिणत ज्ञान में सब अर्थ थिति धारण करें ।।३५।।
प्रवचनसारपद्यानुवाद
१३३ जीव ही है ज्ञान ज्ञेय त्रिधावर्णित द्रव्य हैं। वे द्रव्य आतम और पर परिणाम से संबंद्ध हैं।।३६।। असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब । सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ।।३७।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं।।३८।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो। फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ॥३९।। जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते । वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें।।४०।। सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को। अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही ।।४१।। ज्ञेयार्थमय जो परिणमे ना उसे क्षायिक ज्ञान हो। कहें जिनवरदेव कि वह कर्म का ही अनुभवी ।।४२।। जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्मांश हैं। वह राग-द्वेष-विमोह बस नित वंध का अनुभव करे ।।४३।। यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों। हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरिहंत के॥४४।। पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही। मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई।४५।। यदी स्वयं स्वभाव से शुभ-अशुभरूप न परिणमें । तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी ना सिद्ध हो ।।४६।। जो तात्कालिक अतात्कालिक विचित्र विषमपदार्थ को। चहुं ओर से इक साथ जाने वही क्षायिक ज्ञान है।।४७।। जाने नहीं युगपद् त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के। वह जान सकता है नहीं पर्यय सहित इक द्रव्य को ।।४८।।