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प्रवचनसार पद्यानुवाद ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार
मंगलाचरण एवं पीठिका सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन । । १ । । अवशेष तीर्थंकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन । मैं भक्तिपूर्वक नमूँ पंचाचारयुत सब श्रमणजन ।। २ ।। उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को । मैं नमूँ विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को ॥ ३ ॥ अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण । अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ||४|| परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर । निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ ||५|| निर्वाण पावैं सुर-असुर-नरराज के वैभव सहित । यदि ज्ञान - दर्शनपूर्वक चारित्र सम्यक् प्राप्त हो ॥ ६ ॥ चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है । दृगमोह - क्षोभविहीन निज परिणाम समताभाव है ।।७।। जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित । हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है ॥ ८ ॥ स्वभाव से परिणाममय जिय अशुभ परिणत हो अशुभ । शुभभाव परिणत शुभ तथा शुधभाव परिणत शुद्ध है ।।९।। परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना । अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ।। १० ।। प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा । पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ।। ११ ।।
प्रवचनसार पद्यानुवाद
अशुभोपयोगी आतमा हो नारकी तिर्यग कुनर । संसार में रुलता रहे अर सहस्त्रों दुख भोगता । । १२ ।। शुद्धोपयोगध
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शुद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख । है नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है ।।१३।। हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद् । शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख- दुक्ख में ।।१४।। शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज । स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ।। १५ ।। त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन । स्वयं ही हो गये तातैं स्वयम्भू सब जन कहें ।। १६ ।। यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है । तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ।। १७ ।। सभी द्रव्यों में सदा ही होंय रे उत्पाद - व्यय । ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से ।। १८ ।। असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं। उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों ।। १ ।। अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू । जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं ।। १९ ।। अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए । केवली के देहगत सुख - दुःख नहीं परमार्थ से ।। २० ।। ज्ञानाधिकार
केवली भगवान के सब द्रव्य गुण - पर्याययुत । प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते ।। २१ ।। सर्वात्मगुण से सहित हैं अर जो अतीन्द्रिय हो गये । परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के । । २२ ।।
• आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १