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अध्यात्मनवनीत
समयसार कलश पद्यानुवाद
१०७ जाने बिना निज आतमा जिनवर कहैं सब व्यर्थ
(हरिगीत) निजभाव को निज जान अपनापन करें जो आतमा। परभाव से हो भिन्न नित निज में रमें जो आतमा ।। वे आतमा सद्दृष्टि उनके ज्ञान अर वैराग्य बल। हो नियमसे-यह जानिये पहिचानियेनिज आत्मबल ॥१३६।।
मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ हूँ बंध से विरहित सद
यह मानकर अभिमान में पुलकित वदन मस्तक उठा।। जो समिति आलंबे महाव्रत आचरें पर पापमय । दिग्मूढ़ जीवों का अरे जीवन नहीं अध्यात्ममय ।।१३७।। अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियो। यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे ।। जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में। हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ।।१३८।। अरे जिसके सामने हों सभी पद भासित अपद। सब आपदाओं से रहित आराध्य है वह ज्ञान पद ।।१३९।। उस ज्ञान के आस्वाद में ही नित रमेजो आतमा। अर द्वन्दमय आस्वाद में असमर्थ है जो आतमा ।। आत्मानुभव के स्वाद में ही मगन है जो आतमा । सामान्य में एकत्व को धारण करे वह आतमा।।१४०।। सब भाव पी संवेदनाएँ मत्त होकर स्वयं ही। हों उछलती जिस भाव में अद्भुतनिधि वह आतमा।। भगवान वह चैतन्य रत्नाकर सदा ही एक है। फिर भी अनेकाकार होकर स्वयं में ही उछलता ।।१४१।। पंचाग्नि तप या महाव्रत कुछ भी करो सिद्धि नहीं।
मोक्षमय जो ज्ञानपद वह ज्ञान से ही प्राप्त हो। निज ज्ञान गुण के बिना उसको कोई पा सकता नहीं।।१४२।।
(दोहा) क्रियाकाण्ड से ना मिले, यह आतम अभिराम । ज्ञानकला से सहज ही सुलभ आतमाराम ।। अत: जगत के प्राणियो! छोड़ जगत की आश। ज्ञानकला का ही अरे! करो नित्य अभ्यास ।।१४३।।
अचिंत्यशक्ति धारक अरे चिन्तामणि चैतन्य । सिद्धारथ यह आतमा ही है कोई न अन्य ।। सभी प्रयोजन सिद्ध हैं फिर क्यों पर की आश। ज्ञानी जाने यह रहस करे न पर की आश ।।१४४।।
(सोरठा) सभी परिग्रह त्याग इसप्रकार सामान्य से। विविध वस्तु परित्याग अब आगे विस्तार से।।१४५।।
(दोहा) होंय कर्म के उदय से, ज्ञानी के जो भोग। परिग्रहत्व पावे नहीं, क्योंकि रागवियोग ।।१४६।।
(हरिगीत) हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं। क्योंकिपल-पल प्रलय पावेंवेद्य-वेदक भाव सब ।। बस इसलिए सबके प्रति अति ही विरक्त रहें सदा। चाहें न कुछ भी जगत में निजतत्त्वविद विद्वानजन ।।१४७।। जबतक कषायित न करें सर्वांग फिटकरि आदि से। तबतलक सूती वस्त्र पर सर्वांग रंग चढ़ता नहीं।।