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समयसार कलश पद्यानुवाद
अध्यात्मनवनीत अर उसी में जो नित रमें अर उसे ही जो जानते ।। वे आस्रवों का नाश कर नित रहें आतम ध्यान में। वे रहें निज में किन्तु लोकालोक उनके ज्ञान में ।।१२४।।
संवराधिकार
(हरिगीत) संवरजयी मदमत्त आस्रवभाव का अपलाप कर। व्यावृत्य हो पररूप से सद्बोध संवर भास्कर ।। प्रगटा परम आनन्दमय निज आत्म के आधार से। सद्ज्ञानमय उज्वल धवल परिपूर्ण निजरसभार से ॥१२५।। यह ज्ञान है चिद्रूप किन्तु राग तो जड़रूप है। मैं ज्ञानमय आनन्दमय पर राग तो पररूप है। इसतरह के अभ्यास से जब भेदज्ञान उदित हुआ। आनन्दमय रसपान से तब मनोभाव मुदित हुआ।।१२६।।
(रोला) भेदज्ञान के इस अविरल धारा प्रवाह से।
कैसे भी कर प्राप्त करे जो शुद्धातम को ।। और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे। __ पर परिणति को त्याग निरंतर शुध हो जावे ।।१२७ ।। भेदज्ञान की शक्ति से निजमहिमा रत को।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि निश्चित हो जावे।। शुद्धतत्त्व की उपलब्धि होने पर उसके।
अतिशीघ्र ही सब कर्मों का क्षयहो जावे ।।१२८।। आत्मतत्त्व की उपलब्धि हो भेदज्ञान से।
आत्मतत्त्व की उपलब्धि से संवर होता।। इसीलिए तो सच्चे दिल से नितप्रति करना।
१०५ अरे भव्यजन ! भव्यभावना भेदज्ञान
की । । १ २ ९ । । अरे भव्यजन! भव्यभावना भेदज्ञान की।
सच्चे मन से बिन विराम के तबतक भाना।। जबतक पर से हो विरक्त यह ज्ञान ज्ञान में।
ही थिरन होजाय अधिकक्या कहेंजिनेश्वर ।।१३०।। अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे।
महिमा जानो एक मात्र सब भेदज्ञान की।। और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं।।१३१।। भेदज्ञान से शुद्धतत्त्व की उपलब्धि हो ।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि से रागनाश हो।। रागनाश से कर्मनाश अर कर्मनाश से। ज्ञान ज्ञान में थिर होकर शाश्वत हो जावे ।।१३२।।
निर्जराधिकार
(हरिगीत) आगामि बंधन रोकने संवर सजग सन्नद्ध हो। रागादि के अवरोध से जब कमर कस के खड़ा हो ।। अर पूर्वबद्ध करम दहन को निरजरा तैयार हो। तब ज्ञानज्योति यह अरेनित ही अमूर्छित क्यों न हो।।१३३।। ज्ञानी बंधे ना कर्म से सब कर्म करते-भोगते । यह ज्ञान की सामर्थ्य अर वैराग्य का बल जानिये ।।१३४।।
(दोहा) बंधे न ज्ञानी कर्म से, बल विराग अर ज्ञान। यद्यवि सेवें विषय को, तदपि असेवक जान ।।१३५।।