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________________ समयसार पद्यानुवाद अध्यात्मनवनीत जो न जाने जीव को वे अजीव भी जाने नहीं। कैसे कहें सद्बुष्टि जीवाजीव जब जाने नहीं? ।।२०२।। स्वानुभूतिगम्य है जो नियत थिर निजभाव ही। अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही ।।२०३।। मतिश्रुतावधिमनःपर्यय और केवलज्ञान भी। सब एक पद परमार्थ हैं पा इसे जन शिवपद लहें ।।२०४।। इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ती न शिवपद की करें। यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो ।।२०५।। इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो। बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।।२०६ ।। आतमा ही आतमा का परीग्रह - यह जानकर । 'पर द्रव्य मेरा है' - बताओ कौन बुध ऐसा कहे? ।।२०७।। यदि परीग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे । पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ।।२०८।। छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो। जावे चला चाहे जहाँ पर परीग्रह मेरा नहीं ।।२०९।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को। है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।।२१०।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को। है परिग्रह न अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे ।।२११।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को। है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।।२१२।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को। है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।।२१३।। इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को। सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है ।।२१४।। उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है। अर अनागत भोग की सद्ज्ञानि के कांक्षा नहीं ।।२१५।। वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय । ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे ।।२१६।। बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में। सद्ज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में ।।२१७।। पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानिजन । राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।।२१८।। पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन । रक्त हों परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों ।।२१९।। ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी संख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके ।।२२०।। त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ।।२२१।। जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमे । तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ।।२२२।। इस ही तरह जब ज्ञानिजन निजभाव को परित्यागकर । अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ।।२२३।। आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे । तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२४।। इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज । तो कर्मरज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२५।। आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे । तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा न करे ।।२२६।। त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से। तो कर्मरज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ।।२२७।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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