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________________ अध्यात्मनवनीत अष्टविध कर्मों के कारण चार प्रत्यय ही कहे। रागादि उनके हेतु हैं उनके बिना बंधन नहीं।।१७८।। जगजन ग्रसित आहार ज्यों जठराग्नि के संयोग से। परिणमित होता बसा में मजा रुधिर मांसादि में ।।१७९।। शुद्धनय परिहीन ज्ञानी के बंधे जो पूर्व में। वे कर्म प्रत्यय ही जगत में बांधते हैं कर्म को ।।१८०।। संवर अधिकार उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना। बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना ।।१८१।। अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना। इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नोकर्म ना ।।१८२।। विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो। उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आतमा ।।१८३।। ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे । त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ।।१८४।। जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो। वे आतमा जाने न माने राग को ही आतमा ।।१८५।। जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो। जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ।।१८६।। पुण्य एवं पाप से निज आतमा को रोककर । अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें।।१८७।। विरहित करम नोकरम से निज आत्म के एकत्व को। निज आतमा को स्वयं ध्या सर्व संग विमुक्त हो ।।१८८।। ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते। अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।।१८९।। समयसार पद्यानुवाद बंध के कारण कहे हैं भाव अध्यवसान ही। मिथ्यात्व अर अज्ञान अविरत-भाव एवं योग भी।।१९०।। इनके बिना है आम्रवों का रोध सम्यग्ज्ञानि के। अर आस्रवों के रोध से ही कर्म का भी रोध है ।।१९१।। कर्म के अवरोध से नोकर्म का अवरोध हो। नोकर्म के अवरोध से संसार का अवरोध हो ।।१९२ ।। निर्जरा अधिकार चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन । जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है।।१९३ ।। सुख-दुख नियम से हों सदा परद्रव्य के उपभोग से। अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों ।।१९४।। ज्यों वैद्यजन मरते नहीं हैं जहर के उपभोग से। त्यों ज्ञानिजन बंधते नहीं हैं कर्म के उपभोग से ।।१९५।। ज्यों अरुचिपूर्वक मद्य पीकर मत्त जन होते नहीं। त्यों अरुचि से उपभोग करते ज्ञानिजन बंधते नहीं।।१९६।। ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें। त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय के सेवक नहीं ।।१९७।। उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहे। किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९८ ।। पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं। किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।१९९।। इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा । कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहिचान कर ।।२००।। अणुमात्र भी रागादि का सद्भाव है जिस जीव के। वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को ।।२०१।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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