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अध्यात्मनवनीत लोभ सूक्षम जब गले तब सूक्ष्म सुध-उपयोग हो। है सूक्ष्मसाम्पराय जिसमें सदा सुख का भोग हो ।।१०३।। अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी पण । सब आतमा ही हैं श्री जिनदेव का निश्चय कथन ।।१०४।। वह आतमा ही विष्णु है जिन रुद्र शिव शंकर वही। बुद्ध ब्रह्मा सिद्ध ईश्वर है वही भगवन्त भी।।१०५।। इन लक्षणों से विशद लक्षित देव जो निर्देह है। कोई अन्तर है नहीं जो देह-देवल में रहे ॥१०६।। जो होंयगे या हो रहे या सिद्ध अबतक जो हुए। यह बात है निर्धान्त वे सब आत्मदर्शन से हुए ।।१०७।। भवदुखों से भयभीत योगीचन्द्र मुनिवरदेव ने। ये एकमन से रचे दोहे स्वयं को संबोधने ।।१०८।।
जोइन्दु मुनिवरदेव ने दोहे रचे अपभ्रंस में। भाई ! ये बननेवाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बने-बनाये भगवान की बात है। स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है - ऐसा जाननामानना और अपने में ही जम जाना, रम जाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है। तू एक बार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर; अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि पर-पदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव-सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायेगा, लीन हो जायेगा, समाधिस्थ हो जायेगा। ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा। एक बार ऐसा स्वीकार करके तो देख। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-८३
द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद षद्रव्य-पंचास्तिकाय अधिकार
(हरिगीत) कहे जीव अजीव जिन जिनवरवृषभ ने लोक में। वे वंद्य सुरपति वृन्द से बंदन करूँ कर जोर मैं ।।१।। जीव कर्ता भोक्ता अर अमूर्तिक उपयोगमय । अर सिद्ध भवगत देहमित निजभाव से ही ऊर्ध्वगत ।।२।। जो सदा धारें श्वाँस इन्द्रिय आयु बल व्यवहार से। वे जीव निश्चयजीव वे जिनके रहे नित चेतना ।।३।। उपयोग दो हैं ज्ञान-दर्शन चार दर्शन जानिये। चक्षु अचक्षु अवधि केवल नाम से पहिचानिये ।।४।। ज्ञान आठ मतिश्रुतावधि ज्ञान भी कुज्ञान भी। मन:पर्यय और केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष भी ।।५।। सामान्यतः चऊ-आठ दर्शन-ज्ञान जिय लक्षण कहे। व्यवहार से पर शुद्धनय से शुद्धदर्शन-ज्ञान हैं ।।६।। स्पर्श रस गंध वर्ण जिय में नहीं हैं परमार्थ से। अतः जीव अमूर्त मूर्तिक बंध से व्यवहार से ।।७।। चिद्कर्मकर्ता नियत से द्रवकर्म का व्यवहार से। शुधभाव का कर्ता कहा है आतमा परमार्थ से ।।८।। कर्मफल सुख-दुक्ख भोगे जीव नयव्यवहार से। किन्तु चेतनभाव को भोगे सदा परमार्थ से।।९।। समुद्घात विन तनमापमय संकोच से विस्तार से। व्यवहार से यह जीव असंख्य प्रदेशमय परमार्थ से ।।१०।। भूजलानलवनस्पति अर वायु थावर जीव हैं। दो इन्द्रियों से पाँच तक शंखादि सब त्रस जीव हैं।।११।।