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अध्यात्मनवनीत
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तज तीन त्रयगुण सहित नित परमातमा में जो वसे । शिवपद लहें वे शीघ्र ही इस भाँति सब जिनवर कहें ।। ७८ ।। जो रहित चार कषाय संज्ञा चार गुण से सहित हो । तुम उसे जानों आतमा तो परमपावन हो सको ।। ७९ ।। जो दश रहित दश सहित एवं दशगुणों से सहित हो । तुम उसे जानो आतमा अर उसी में नित रत रहो ॥८०॥ निज आतमा है ज्ञान दर्शन चरण भी निज आतमा । तपशील प्रत्याख्यान संयम भी कहे निज आतमा ।। ८१ ।। जो जान लेता स्व-पर को निर्भ्रान्त हो वह पर तजे । जिन - केवली ने यह कहा कि बस यही संन्यास है ।।८२ ॥ रतनत्रय से युक्त जो वह आतमा ही तीर्थ है। है मोक्ष का कारण वही ना मंत्र है ना तंत्र है ।।८३ ।। निज देखना दर्शन तथा निज जानना ही ज्ञान है ।
की भावना चारित्र है ।।८४ ॥ 'तहँ सकल गुण जहँ
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बस इसलिए ही योगीजन ध्याते सदा ही आतमा ।। ८५ ।। तू एकला इन्द्रिय रहित मन वचन तन से शुद्ध हो । निज आतमा को जान ले तो शीघ्र ही शिवसिद्ध हो ।। ८६ ।। यदि बद्ध और अबद्ध माने बंधेगा निर्भ्रान्त ही । जो रमेगा सहजात्म में तो पायेगा शिव शान्ति ही ।। ८७ ।। जो जीव सम्यग्दृष्टि दुर्गति गमन ना कबहूँ करें । यदि करें भी ना दोष पूरब करम को ही क्षय करें ।। ८८ ।। सब छोड़कर व्यवहार नित निज आतमा में जो रमें। वे जीव सम्यग्दृष्टि तुरतहिं शिवरमा में जा रमें ।। ८९ ।।
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जो हो सतत वह आतमा जिन - केवली ऐसा कहें
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योगसार पद्यानुवाद
सम्यक्त्व का प्राधान्य तो त्रैलोक्य में प्राधान्य भी ।
बुध शीघ्र पावे सदा सुखनिधि और केवलज्ञान भी ।। ९० ।। हरिगुणगणनिलय जिय अजर अमृत आतमा ।
तहँ कर्मबंधन हों नहीं झर जाँय पूरब कर्म भी ।। ११ । । जिसतरह पद्मनि - पत्र जल से लिप्त होता है नहीं । जिनभावरत जिय कर्ममल से लिप्त होता है नहीं ।। ९२ ।। लीन समसुख जीव बारम्बार ध्याते आतमा । वे कर्म क्षयकर शीघ्र पावें परमपद परमातमा ।। ९३ ।। पुरुष के आकार जिय गुणगणनिलय सम सहित है । यह परमपावन जीव निर्मल तेज से स्फुरित है ।। ९४ । । इस अशुचि-तन से भिन्न आतमदेव को जो जानता । नित्य सुख में लीन बुध वह सकल जिनश्रुत जानता ।। ९५ ।। जो स्व-पर को नहिं जानता छोड़े नहीं परभाव को । वह जानकर भी सकल श्रुत शिवसौख्य को ना प्राप्त हो । । ९६ ।। सब विकल्पों का वमन कर जम जाय परमसमाधि में ।
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तब जो अतीन्द्रिय सुख मिले शिवसुख उसी को जिन कहें ।। ९७ ।। पिण्डस्थ और पदस्थ अर रूपस्थ रूपातीत जो । शुभध्यान जिनवर ने कहे जानो कि परमपवित्र हो । । ९८ ।। 'जीव हैं सब ज्ञानमय' - इस रूप जो समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ।। ९९ ।। जो राग एवं द्वेष के परिहार से समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ।। १०० ।। हिंसादि के परिहार से जो आत्म-स्थिरता बढ़े । यह दूसरा चारित्र है जो मुक्ति का कारण कहा ।। १०१ ।। जो बढ़े दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वादि के परिहार से । परिहारशुद्धी चरित जानो सिद्धि के उपहार से ।। १०२ ।।