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उसकी ही निश-दिन करी प्राश, कैसे कटता संसारपास । भव-दुख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान ।। मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहिं दिया ध्यान । पूजा कीनी वरदान माँग, कैसे मिटता संसार-स्वाँग ।। तेरा स्वरूप लख प्रभु प्राज, हो गये सफल संपूर्ण काज । मो उर प्रगट्यो प्रभु भेदज्ञान , मैंने तुम को लीना पिछान ।। तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सब के एक साथ । तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत ।। यह मैंने तेरी सुनी प्रान, जो लेवे तुमको बस पिछान । वह पाता है केवल्यज्ञान, होता परिपूर्ण कला-निधान ।। विपदामय पर-पद है निकाम, निजपद ही है आनन्दधाम ।
मेरे मन में बस यही चाह, निजपद को पाऊँ हे जिनाह ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जयमाला अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पर का कुछ नहिं चाहता, चाहूँ अपना भाव। निज स्वभाव में थिर रहूँ, मेटो सकल विभाव।।
पुष्पांजलि क्षिपेत्
प्रश्न
१. जल, नैवेद्य और फल का छन्द अर्थ सहित लिखिये। २. जयमाला में से जो पंक्तियाँ तुम्हें रुचिकर हों, उनमें से चार पंक्तियाँ अर्थ सहित
लिखिये तथा रुचिकर होने का कारण भी लिखिये।
'संसार का बंधन २ लिया।
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