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पाठ १०
देव-शास्त्र-गुरु स्तुति
( डॉ. हुकमचंद भारिल्ल, जयपुर )
समयसार' जिनदेव हैं जिन प्रवचन जिनवाणि । नियमसार' निर्ग्रथ गुरु करे कर्म की हानि ।। देव- हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना। अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर, चौरासी के चक्कर खाना ।। करुणानिधि तुमको समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा। भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मुख खड़ा रहा ।। तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना। तुम हो निरीह जग से कृतकृत, इतना ना मैंने पहिचाना।।
प्रभु वीतराग की वाणी में, जैसा जो तत्त्व दिखाया है।
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`यह जगत स्वयं परिणमनशील, केवलज्ञानी ने गाया है ।। उस पर तो श्रद्धा ला न सका, परिवर्तन का अभिमान किया। बनकर पर का कर्त्ता अब तक, सत् का न प्रभो सन्मान किया।।
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* प्रचलित मूलप्रति में “ जो होना है सो निश्चित है, केवलज्ञानी ने गाया है हैं, पर बालकों की दृष्टि से कठिन जानकर उक्त परिवर्तन किया गया है।
१. शुद्धात्मा ( स्वभाव दृष्टि से कारणपरमात्मा और पर्याय दृष्टि से कार्य परमात्मा)। २. शुद्ध ( निश्चय ) चारित्र । ३. चौरासी लाख योनियाँ। ४. इच्छारहित। ५. जिन्हें कुछ करना बाकी न रहा हो, उन्हें कृतकृत्य कहते हैं । ६. वस्तु स्वभाव।
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