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रमेश - हैं, वे जल गये! यह तो बहुत बुरा हुअा। फिर........? प्रध्यापक – फिर क्या ? पार्श्वकुमार ने उन नाग-नागिनी को संबोधित किया
और वे मंद कषाय से मर कर धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। रमेश - अच्छा हुआ, चलो, उनका भव तो सुधर गया। प्रध्यापक – देव हो गये-इसमें क्या अच्छा हुआ ? अच्छा तो यह हुआ कि उनकी
रुचि सन्मार्ग की ओर हो गई। इस हृदयविदारक घटना से पार्श्वकुमार का कोमल हृदय वैराग्यमय
हो गया और पौष कृष्ण एकादशी के दिन वे दिगम्बर साधु हो गये । सुरेश - फिर तो उन्होंने घोर तपश्चर्या की होगी ? । अध्यापक – हाँ, फिर वे अखण्ड मौन व्रत धारण कर आत्मसाधना में लीन हो
गये। एक बार वे अहिक्षेत्र के वन में ध्यानस्थ थे। ऊपर से उनका पूर्व-जन्म का वैरी संवर नामक देव जा रहा था। उन्हें देखकर उसका पूर्व-वैर जागृत हो गया और उसने मुनिराज पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया। पानी बरसाया, प्रोले बरसाये, यहाँ तक कि घोर तूफान चलाया और पत्थर तक बरसाये, पर पार्श्वनाथ आत्मसाधना से डिगे नहीं और उन्हें उसी समय चैत्र कृष्ण चर्तुदशी के दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। यह देखकर वह देव पछताता हुआ उनके चरणों में
लोट गया। जिनेश – हमने तो सुना है कि उस समय उन धरणेन्द्र-पद्मावती ने
पार्श्वनाथ की रक्षा की थी। अध्यापक – साधारण देव-देवी तीनलोक के नाथ की क्या रक्षा करेंगे? वे तो
अपनी आत्मसाधना द्वारा पूर्ण सुरक्षित थे ही, पर बात यह है कि उस समय धरणेन्द्र और पद्मावती को उनके उपसर्ग को दूर करने का विकल्प अवश्य आया था तथा उन्होंने यथाशक्य अपने विकल्प की पूर्ति भी की थी। उसके बाद वे करीब सत्तर वर्ष तक सारे भारतवर्ष में समवशरण सहित विहार करते रहे एवं दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को तत्त्वोपदेश देते रहे। वे अपने उपदेशों में सदा ही आत्मसाधना पर
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