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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अहिंसा : एक विवेचन अहिंसा परमो धर्म:” अहिंसा को परम धर्म घोषित करने वाली यह सूक्ति आज बहुप्रचलित है। यह तो एक स्वीकृत तथ्य है कि अहिंसा ही परम धर्म है। पर प्रश्न यह है कि अहिंसा क्या है ? 66 हिंसा और अहिंसा की चर्चा जब भी चलती है, हमारा ध्यान प्राय: दूसरे जीव को मारना, सताना या रक्षा करना आदि की ओर ही जाता है। हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध प्राय: दूसरों से ही जोड़ा जाता है। दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है, ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है । अपनी भी हिंसा होती है, इस तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो वे आत्महिंसा का अर्थ विषभक्षणादि द्वारा आत्मघात ( आत्महत्या ) ही मानते हैं, पर उसके अन्तर्तम तक पहुँचने का प्रयत्न नही किया जाता है । अन्तर में राग-द्वेष की उत्पत्ति भी हिंसा है, इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा और हिंसा की परिभाषा बताते समय अन्तरंग-दृष्टि को ही प्रधानता दी है। वे लिखते हैं : 66 “ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और उन भावों का उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा हैं । " अतः वे स्पष्ट घोषणा करते है कि राग-द्वेष - मोह रूप परिणतिमय होने से झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह भी प्रकारान्तर से हिंसा ही हैं। वे कहते हैं :श्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।। आत्मा के शुद्ध परिणामों के घात होने से झूठ, चोरी आदि हिंसा ही हैं, भेद करके तो मात्र शिष्यों को समझाने के लिए कहे गये हैं । योग्य आचरण करने वाले सत्पुरुष के रागादि भावों के नही होने पर केवल परप्राण -पीड़न होने से हिंसा नहीं होती तथा प्रयत्नाचार ( असावधानी ) ३४ Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008325
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1997
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size719 KB
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