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प्रवचनकार - यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। अतः प्रास्त्रवादिक पाँच पर्यायरूप विशेष तत्त्व कहे। उक्त सातों के यथार्थ श्रद्धान बिना मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है। क्योंकि जीव और अजीव को जाने बिना अपने-पराये का भेदविज्ञान कैसे हो ? मोक्ष को पहिचाने बिना और हित रूप माने बिना उसका उपाय कैसे करे ? मोक्ष का उपाय संवर निर्जरा हैं, अतः उनका जानना भी आवश्यक है। तथा आस्त्रव का प्रभाव सो संवर है, और बंध का एकदेश प्रभाव सो निर्जरा है, अतः इनको जाने बिना इनको छोड़ संवर निर्जरा रूप कैसे प्रवर्ते?
शंकाकार - हमने तो प्रवचन में सुना था कि प्रात्मा तो त्रिकाल शुद्ध , शुद्धाशुद्ध पर्यायों से पृथक् है, वही पाश्रय करने योग्य है।
प्रवचनकार - भाई, वह द्रव्य–दृष्टि के विषय की बात है। आत्मद्रव्य प्रमाण–दृष्टि से शुद्धाशुद्ध पर्यायों से युक्त है।
जिज्ञासु -यह द्रव्य-दृष्टि क्या है ?
प्रवचनकार - सप्त तत्त्वों को यथार्थ जानकर, समस्त परपदार्थ और शुभाशुभ प्रास्त्रवादिक विकारी भाव तथा संवरादिक अविकारी भावों से भी पृथक् ज्ञानानन्द-स्वभावी, त्रिकाली ध्रुव प्रात्मतत्त्व ही दृष्टि का विषय है। इस दृष्टि से कथन में पर, विकार और भेद को भी गौण करके मात्र त्रैकालिक ज्ञानस्वभाव को प्रात्मा कहा जाता है और उसके प्राश्रय से ही धर्म ( संवर निर्जरा) प्रकट होता है।
जिन मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म पाते हैं, उन मोह-राग-द्वेष भावों को तो भावास्त्रव कहते हैं। उसके निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं आना द्रव्यास्त्रव है।
इसी प्रकार आत्मा का अज्ञान, मोह-राग-द्वेष , पुण्य-पाप आदि विभाव भावों में रुक जाना सो भाव-बंध है और उसके निमित्त से पुद्गल का स्वयं कर्मरूप बंधना सो द्रव्य-बंध है।
शंकाकार - पुण्य-पाप को बंध के साथ क्यों जोड़ दिया ?
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