SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इस गुणस्थान से सीधे देशविरत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा यहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध व मरण तथा मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता हैं। (४) अविरत सम्यक्त्व निश्चय सम्यग्दर्शन से सहित और निश्चय व्रत (अणुव्रत और महाव्रत) से रहित अवस्था ही अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहलाता हैं। जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क्षयोपशम आदि लब्धियों तथा चतुर्थ गुणस्थान के योग्य बाह्य आचार से सम्पन्न होने पर स्वपुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख होने पर प्रात्मानुभूतिपूर्वक होती हैं अर्थात् वह अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझता हैं कि “मैं तो त्रिकाल एकरूप रहने वाला ज्ञायक परमात्मा हूँ; में ज्ञाता हूँ अन्य सब ज्ञेय हैं, पर के साथ मेरा कोई संबंध है ही नहीं। अनेक प्रकार के विकारी भाव जो पर्याय में होते हैं। वे मेरा स्वरूप नही है, ज्ञाता स्वभाव की दृष्टि एवं लीनता करते ही वे नाश को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् उत्पन्न ही नहीं”। इस प्रकार निर्णयपूर्वक दृष्टि स्वसन्मुख होकर निर्विकल्प आनंदरूप परिणति का साक्षात् अनुभव करती हैं, तथा निर्विकल्प अनुभव के छूट जाने पर भी मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी कषायों के प्रभावस्वरूप आत्मा की शुद्ध परिणति निरन्तर बनी रहती हैं, उसको अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । इसके तीन भेद होते हैं :(१) औपशमिक (२) क्षायोपशमिक (३) क्षायिक इस तीन प्रकार के सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शन के साथ जब तक इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उदयवश अविरतिरूप परिणाम बना रहता हैं तब तक उसके अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान रहता हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञान से संपन्न होने के कारण अभिप्राय की अपेक्षा विषयों के प्रति सहज उदासीन होता हैं। चरणानुयोग के अनुसार आचरण में उसके पंचेन्द्रियों के विषयों का तथा त्रस-स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं होता, इसलिए इसके बारह प्रकार की अविरति पाई जाती हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008320
Book TitleTattvagyan Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size394 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy