________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
जिज्ञासु -
यह तो आत्मा की शुद्ध पर्याय की बात हुई। आत्मा के विकारी भावों और ज्ञानावरणादि कर्मो में तो परस्पर कारकता का संबंध पाया ही जाता हैं। प्रवचनकार -
नहीं, सब द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छह कारक निश्चय से स्वयं के स्वयं में वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल चाहे वे शुद्ध दशा में हों या अशुद्ध दशा में, छहों कारक रूप स्वयं परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की ( निमित्त कारणों की) अपेक्षा नहीं रखते।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने अपने ‘पंचास्तिकाय' नामक महाग्रंथ में इसका उल्लेख किया हैं। पंचास्तिकाय की ६२वीं गाथा की टीका लिखते हुए अमृतचंद्राचार्यदेव ने खूब खुलासा किया हैं, जो इस प्रकार हैं :
(१) पुद्गल स्वतंत्र रूप से द्रव्यकर्म को करता होने से पुद्गल स्वयं ही कर्ता हैं; (२) द्रव्यकर्म को प्राप्त करता होने से द्रव्यकर्म कर्म हैं, अथवा द्रव्यकर्म से स्वयं अभिन्न होने से पुद्गल स्वयं ही कर्म (कार्य) हैं; (३) स्वयं द्रव्यकर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाला होने से पुद्गल स्वयं ही करण हैं; (४) अपने को द्रव्यकर्मरूप परिणाम देता होने से पुद्गल स्वयं ही संप्रदान हैं; (५) अपने में से पूर्व परिणाम का व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होने से तथा पुद्गल द्रव्यरूप ध्रुव रहता होने से पुद्गल स्वयं ही अपादान हैं; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से द्रव्यकर्म करता होने से पुद्गल स्वयं ही अधिकरण हैं।
उसी प्रकार (१) जीव स्वतंत्र रूप से जीवभाव को करता होने से जीव स्वयं ही कर्ता हैं; (२) जीवभाव को प्राप्त करता होने से जीवभाव कर्म हैं अथवा जीवभाव से स्वयं अभिन्न होने से जीव स्वयं ही कर्म हैं; (३) स्वयं जीवभाव रूप से परिणमित होने की शक्ति वाला होने से जीव स्वयं ही करण हैं; (४) अपने को जीवभाव देता होने से जीव स्वयं ही संप्रदान हैं; (५) अपने में से पूर्व भाव का व्यय करके ( नवीन) जीवभाव करता होने से और द्रव्यरूप
४१
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com