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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोह - राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। इनकी उत्पत्ति रूके, इसका एक मात्र उपाय उपलब्ध ज्ञान का आत्म- केन्द्रित हो जाना हैं। इसी से शुभाशुभ भावों का प्रभाव होकर वीतराग भाव उत्पन्न होगा और एक समय वह होगा कि समस्त मोह-राग-द्वेष का प्रभाव होकर आत्मा वीतराग - परिणति रूप परिणत हो जायगा। दूसरे शब्दों में पूर्ण ज्ञानानंदमय पर्याय रूप परिणमित हो जायेगा । उक्त वैचारिक प्रक्रिया ही तत्त्वविचार की श्रेणी हैं। स्वानुभूति प्राप्त करने की प्रक्रिया निरंतर तत्त्वमंथन की प्रक्रिया हैं । किन्तु तत्त्वमंथन रूप विकल्पों से भी आत्मानुभूति प्राप्त नहीं होगी क्योकि कोई भी विकल्प ऐसा नहीं जो आत्मानुभूति को प्राप्त करा दे। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत् पर से दृष्टि हटानी होगी। समस्त जगत् से आशय हैं कि आत्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि जड़ (अचेतन) द्रव्य तो पर हैं ही, अपने आत्मा को छोड़कर अन्य चेतन पदार्थ भी पर हैं तथा आत्मा में प्रति समय उत्पन्न होने वाली विकारी - अविकारी पर्यायें (दशा) भी दृष्टि का विषय नहीं हो सकती। उनसे भी परे प्रखंड त्रिकाली चैतन्य ध्रुव आत्मतत्त्व हैं, वही एक एकमात्र दृष्टि का विषय है, जिसके प्राश्रय से आत्मानुभूति प्रगट होती है जिसे कि धर्म कहा जाता हैं। दूसरे शब्दों में रङ्ग, राग और भेद से भी परे चेतनतत्त्व हैं। रङ्ग माने पुद्गलादि पर पदार्थ, राग माने आत्मा में उठने वाले शुभाशुभ रूप रागादि विकारी भाव, और भेद माने गुण-गुणी भेद व ज्ञानादि गुणो के विकास संबंधी तारतम्य रूप भेद; इन सब से परे ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुव तत्त्व हैं। वही एक मात्र आश्रय योग्य तत्व हैं। उसके प्रति वर्तमान ज्ञान के उघाड़ का सर्वस्व समर्पण ही प्रात्मानुभूति का सच्चा उपाय हैं। प्रश्न यह नही हैं कि आपके पास वर्तमान में प्रगटरूप कितनी ज्ञानशक्ति हैं? प्रश्न यह हैं कि क्या आप उसे पूर्णत: ग्रात्म - केन्द्रित कर सकते हैं ? स्वानुभूति के लिए स्वस्थ मस्तिष्क व्यक्ति को जितना ज्ञान प्राप्त हैं, वह पर्याप्त हैं। पर प्रगट ज्ञान का आत्म-स्वभाव के प्रति सर्वस्व समर्पण एक अनिवार्य तत्त्व ( शर्त) हैं, जिसके बिना आत्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो गया हो तो अप्रयोजनभूत ३४ Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008320
Book TitleTattvagyan Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size394 KB
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