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__पं. टोडरमल - आप भी जब तक निश्चय नय से प्ररूपित वस्तु को न पहिचाने तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करे, अतः निचली दशा में अपने को भी व्यवहार नय कार्यकारी हैं; परन्तु व्यवहार को उपचार मान कर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझे तब तो कार्यकारी हैं, किन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मान कर “इस प्रकार ही हैं।” ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा अकार्यकारी हो जावे।
इसी प्रकार चारो अनुयोगों के कथन को ठीक प्रकार से न समझने के कारण वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। अतः चारों अनुयोगों के व्याख्यान का विधान अच्छी तरह समझना चाहिए।
दीवान रतनचंद - प्रथमानुयोग के व्याख्यान के विधान को संक्षेप में समझाइये।
पं. टोडरमल - प्रथमानुयोग में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल , महापुरुषों की प्रवृत्ति आदि बता कर जीवों को धर्म में लगाया जाता हैं। प्रथमानुयोग में मूल कथाएँ तो जैसी की तैसी होती है, पर उनमें प्रसंग-प्राप्त व्याख्यान कुछ ज्यों का त्यों और कुछ ग्रंथकर्ता के विचारानुसार होता हैं, परंतु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता। जैसे तीर्थंकरो के कल्याणकों में इन्द्र आए यह तो सत्य हैं, पर इन्द्र ने जैसी स्तुति की थी वे शब्द हूबहू वैसे ही नहीं थे, अन्य थे। इसी प्रकार परस्पर किन्हीं के वार्तालाप हुअा था सो उनके अक्षर तो अन्य नीकले थे, ग्रन्थकर्ता ने अन्य कहे , पर प्रयोजन एक ही पोषते हैं।
तथा कहीं-कहीं प्रसंगरूप कथाएँ भी ग्रंथकर्ता अपने विचारानुसार लिखते हैं। जैसे 'धर्म परीक्षा' में मूर्यो की कथाएँ लिखीं, सो वही कथा मनोवेग ने कही थी ऐसा नियम नहीं हैं, किन्तु मूर्खपणे को पोषण करने वाली कही थी।
तथा प्रथमानुयोग में कोई धर्मबुद्धि से अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे विष्णुकुमारजी ने धर्मानुराग से मुनियों का उपसर्ग दूर किया। मुनि पद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था, परंतु वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमारजी की प्रशंसा की हैं। इस छल से औरों को ऊचा धर्म छोड़ कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं हैं।
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